शुक्रवार, 18 मई 2018

आतंकियों को मिला अभयदान

...तो सरकार ने रमज़ान में आतंकियों को अभयदान दे दिया. आतंक का कोई धर्म नहीं होता, फिर भी महबूबा मुफ्ती ने सरकार को आतंकियों के लिए त्यौहार मनाने की छुट्टी मांगी और सरकार ने खुशी-खुशी वो छुट्टी मंज़ूर कर भी दी. ये जानते हुए भी कि देश की सेना, इस छुट्टी के सख्त खिलाफ़ है.

यानी ये तय हो गया कि राजनीति की बलिवेदी पर सैनिकों की आहूति दी जाती रहेगी. क्योंकि कथित सीज़फायर का ऐलान होने के डेढ़ घंटे के भीतर शोपियां में पहला एनकाउंटर भी शुरू हो गया. बेशक सीज़फायर में सेना ने ये शर्त रख दी थी कि अगर दूसरी तरफ़ से गोली नहीं चली तो हम भी गोली नहीं चलाएंगे. लेकिन जहां फौजी अफसरों को अपनी जान बचाने के लिए पत्थरबाज़ों पर गोली चलाने के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता हो कि उन पर FIR न की जाए, वहां पहली गोली किसने चलाई ये किसकी गवाही से तय होगा? महबूबा मुफ्ती की? पत्थरबाज़ों की? अलगाववादियों की? या सेना के जवान की?

वैसे सरकार के सूत्रों का तर्क है कि इसे ‘सीज़फायर’ न कहा जाए बल्कि इसे ‘सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन’ कहा जाए. इस दौरान सीमापार से आने वाले घुसपैठियों पर कार्रवाई में कोई रोक नहीं होगी. सरहद पार से या घरेलू आतंकी भी इस दौरान कोई आतंकी हमला करते हैं – तो ऑपरेशन फिर से शुरू कर दिया जाएगा.

क्यों न सेना को भी एक महीने की छुट्टी दे दी जाए?

लेकिन सवाल ये है कि इतनी ढील भी क्यों? जब सेना ये कह रही है कि हम आतंकवादियों की कमर लगभग तोड़ चुके हैं, बुरहान वानी के बाद जिस-जिस ने कमांडर की ज़िम्मेदारी ली, सेना ने उसे निपटाने में देर नहीं लगाई. आतंकवादी इस समय पैसे और हथियारों की कमी से इस कदर जूझ रहे हैं कि हथियार लूटने जैसी हरकतें तक करने से नहीं चूक रहे – ऐसे में उन्हें संघर्ष विराम कर के अभयदान देने और खोई हुई ताकत फिर से जुटाने का मौका क्यों देना?

साल 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान रमज़ान महीने में ऐसा ही सीज़फायर किया गया था. अगर उस समय के आंकड़ों की तुलना करें, तो सीज़फायर से पहले के 2 महीनों में, सितंबर से नवंबर तक, 119 जवान मारे गए थे, 151 नागरिक और 341 आतंकवादी. जबकि रमज़ान सीज़फायर में (4 महीने के 4 चरणों में) 197 आतंकवादी मारे गए, 348 नागरिकों की मौत हुई और 293 आतंकी मार गिराए गए. इस तुलना से ये बात साफ़ है कि आतंकवादियों को न किसी सीज़फायर की घोषणा से फर्क पड़ता है न ही रमज़ान से.

और केंद्र के कथित सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन के ऐलान के बाद, आतंकी संगठनों ने अपनी मंशा साफ़ बता भी दी है. लश्कर ने सरकार के सीज़फायर ऑफर को ठुकराने में दो मिनट नहीं लगाए. लगाते भी क्यों, जिस ISIS के झंडे को आतंकी संगठन कश्मीर में ले कर चल रहे हैं – वो ISIS तो रमज़ान के महीने में जिहाद को ज़रूरी बताता है, उसके मुताबिक़ तो जिहाद से बड़ी कोई पूजा नहीं है. फिर हम क्यों अपने सैनिकों को इन आतंकवादियों पर रहम करने के लिए मजबूर करें?

हो सकता है ये सरकार की कोई कूटनीति हो. लेकिन दोनों तरफ युद्ध को तैयार खड़ी सेनाओं को कूटनीति ही रोक पाती तो भगवान कृष्ण ने शायद महाभारत का युद्ध रोक लिया होता. आतंक की तरफ़ जा रहे कश्मीरी युवाओं का दिल जीतने के लिए अगर सरकार ने ये कदम उठाया है तो इसके लिए सैनिकों को बलि पर चढ़ाने की क्या ज़रूरत थी? महबूबा मुफ्ती तो इस सीज़फायर की आड़ में अपने ‘वोट बैंक’ को खुश कर लेंगी, लेकिन बीजेपी के राष्ट्रवाद का क्या होगा जो गोलियां गिनने में नहीं, चलाने में यकीन रखने का दम भरता है?

क्या महबूबा मुफ्ती इस बात की गारंटी लेंगी कि अमरनाथ यात्रा पर कोई हमला नहीं होगा? क्या वो इस बात की गारंटी लेंगी कि सुरक्षा बलों को निशाना नहीं बनाया जाएगा? कोई इस बात की गारंटी देगा कि इस एक महीने में कश्मीर जाने वाला कोई पर्यटक पत्थरबाज़ों का शिकार नहीं होगा? अगर इन सवालों के जवाब हां में मिलते हों तो ठीक है, दे दीजिए सेना के जवानों को भी एक महीने की छुट्टी! अगर आतंकवादियों को पवित्र महीने में परिवार के साथ छुट्टी बिताने का हक़ है, तो सेना का जवान भी जाने कि परिवार के साथ त्यौहार मनाने का सुख क्या होता है !
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