सोमवार, 30 नवंबर 2015

बुरा समय, जानें कैसे करें समाधान

हर रात के बाद सवेरा होता है तो लोग क्यों नहीं मानते कि ‘अंधेरे के बाद उजाला भी होता है’। यानी कि एक बुरे दिन के बाद एक अच्छा समय भी आपके इंतजार में बैठा ही होगा। परन्तु अक्सर लोग यह समझ नहीं पाते और हमेशा ही उदासी के अंधकार में डूबे रहते हैं।
बुरा दिन किसी विशेष व्यक्ति को चुनकर उसके पास नहीं आता। यह किसी के साथ भी हो सकता है। मेरे या आपके साथ भी। बुरा दिन वह नहीं जो एक बड़े स्तर पर आपकी ज़िंदगी बदलकर रख दे, बल्कि बुरा दिन वह भी है जो आपको धीरे-धीरे उदास करता जाए।
लेकिन उससे बाहर कैसे निकलना है यह आपको जानना चाहिए। फर्ज कीजिए कि आज आप सुबह बिल्कुल समय पर उठ गए। पहला अलार्म बजते ही आपकी नींद खुल गई और आपने सोचा कि बस एक मिनट में उठ जाएंगे लेकिन फिर सो गए।
इसके बाद आपकी नींद तब खुली जब आपको ऑफिस जाने के लिए घर से निकल जाना चाहिए था। ढेर सारी मशक्कत करके किसी तरह से आप ऑफिस पहुंचे लेकिन देरी से आने पर बॉस की डांट का शिकार हो गए। यह थी दिन की दूसरी बुरी घटना।
अब गुस्से में बॉस ने इतना काम थमा दिया कि पूरा दिन तो क्या शाम तक भी काम खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ऐसे में मन में बार-बार आता है कि ‘आज का तो दिन ही बुरा था’।
इसी परेशान मन से आप घर जाते हैं और घर वालों से भी ढंग से बात नहीं करते। आपके चिड़चिड़े स्वभाव से घर वालों का भी मूड खराब होता है। लेकिन यह तो गलत है ना?
पर जिनका बुरा दिन गुजरता है वह तो किसी की सलाह सुनने को भी राज़ी नहीं होते। जो कोई भी उन्हें राय देने आगे बढ़ता है वह उसी पर ही अपने गुस्से का बाण छोड़ देते हैं। ऐसे में भले ही किसी की राय ना सुनें लेकिन आगे की स्लाइड्स में दिए गए कुछ टिप्स जरूर अपनाएं, यह वाकई आपको तरो-ताज़ा कर देंगे।
यदि किसी दिन आपको बार-बार लगे कि कुछ गलत हो रहा है। सब कुछ आपके विरुद्ध चल रहा है और साथ ही आपको अपनी बुरी किस्मत का आभास हो रहा है तो सबसे पहले तो ऐसा सोचना बंद कर दें। बुरा समय किसी का भी आ सकता है, इसमें कोई नई बात नहीं है।
यदि आप किसी दिन बुरी घटनाओं का शिकार हो रहे हैं, तो संसार में ऐसे अनगिनत लोग हैं जिनके साथ ठीक वैसा ही हो रहा है जो आपके साथ हुआ। उनकी भी इच्छानुसार दिन की सभी घटनाएं क्रमानुसार नहीं हुईं। उन्हें भी किसी के बुरे व्यवहार का सामना करना पड़ा होगा।
तो ऐसे में आप यह सोचकर संतुष्ट हो जाएं कि अकेले आप नहीं हैं जिसके साथ ऐसा हुआ। और अपने दिल को तसल्ली देते हुए आगे बढ़ जाएं और कहें ‘आज का दिन बुरा था तो क्या हुआ, कल फिर अच्छा होगा’।
लेकिन फिर भी कुछ लोग दिन बुरा गुजरने पर उसी के बारे में रात तक सोचते रहते हैं। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो बेहद हताश हो जाते हैं मानो इसके आगे जीवन खत्म ही हो गया है। लेकिन ऐसी भावना से दूर ही रहना चाहिए।
यदि दिन बुरा गुजरा है तो हो सकता है आपकी शाम अच्छी हो। और यदि किन्हीं कारणों से वक्त अच्छा नहीं चल रहा तो यह जरूर समझ लें कि वक्त रुकता नहीं है। अच्छा हो या बुरा, यह गुजर ही जाएगा। तो फिर बुरा दिन आपके पास हमेशा ही डेरा जमाए नहीं बैठा रहेगा।
लेकिन इतने से भी यदि आप संतुष्ट नहीं हो रहे तो बुरे समय में भी सकारात्मक सोच लाने की कोशिश करें। जानें कि यह बुरा समय आपके लिए क्या लाया है। जी नहीं, बुरा समय केवल बुरी बातें नहीं, बल्कि साथ ही एक संदेश भी लाता है।
एक ऐसा संदेश जो विभिन्न अनुभवों से पूरित है। यह एक जीवन संदेश है जो बताता है कि इस बुरे समय से आप क्या-क्या सीख सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप बॉस की डांट के बाद अधिक मात्रा में दिए गए काम का शिकार हो गए हैं तो हताश ना हों, बल्कि उस काम को इतना अच्छे से पूरा करें कि बॉस अपना सारा गुस्सा भूल जाएं।
इससे आपका दिन कुछ अच्छा हो सकता है साथ ही आपको बुरे समय में भी अच्छी परफार्मेंस देने की सीख मिलती है। केवल यही नहीं, हमारा बुरा समय हमें जीवन की एक और सीख देकर जाता है।
यह समय हमें बताता है कि हर किसी का जीवन परफेक्ट नहीं होता। उतार-चढ़ाव तो जीवन की किताब का एक ऐसा हिस्सा है जो उसके पन्नों के बढ़ते रहने की निशानी है। यदि सब कुछ अच्छा ही होगा तो फिर मनुष्य क्या सीखेगा? बुरा समय ही हमें कई सारे पाठ पढ़ाता है।
बुरे समय की एक खासियत यह भी है कि हम उसे नियंत्रित कर सकते हैं। जी हां, ठीक सुना आपने, हम चाहें तो अपने बुरे समय को नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन कैसे, जानें:
क्योंकि किसी चीज़ में छिपी बुराई या अच्छाई हम अपने दिमाग के सहारे ही समझ पाते हैं, फिर अगर हम अपने दिमाग को यह समझा दें कि वक्त उतना भी बुरा नहीं कितना हम समझ रहे हैं तो आधी दिक्कत तो वहीं समाप्त हो जाती है।
जिस दिन आप यह समझ जाएंगे उस दिन आप चुटकियों में अपने बुरे समय को अलविदा कह सकते हैं। क्योंकि बुरे समय को धीरे-धीरे कम करते हुए आप समझ पाएंगे कि अच्छा समय भी आपका इंतजार कर रहा है। वह समय जो आपको जीने की कला सिखाता है, और वह समय जो काफी कम है और उसे जी भरकर जीना जरूरी है।
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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

समुद्र की गहराइयों में जीवन की पड़ताल

शर्मिला पाल
क्या समुद्र मछलियों से भरा है? क्या केकड़ों की आबादी मछलियों पर भारी पड़ती है? क्या समुद्र में रहस्यमयी जल परियां भी रहती हैं ? न जाने ऐसे कितने सवाल हैं जो अब तक समुद्री जीव जगत को लेकर हमारे ज़ेहन में उठते रहे हैं। जल्द ही इन तमाम सवालों का अंत होने वाला है क्योंकि जैव प्रजातियों की गणना करने वाले वैज्ञानिकों ने समुद्री जीवों की गिनती और उनका वर्गीकरण लगभग पूरा कर लिया है। कोई बड़ी अड़चन न हुई तो 2020 के पहले ही वैज्ञानिक यह बताने की स्थिति में होंगे कि समुद्र में कुल कितने जीव और कुल कितनी प्रजातियां हैं। लगभग 95 प्रतिशत प्रजातियों की गणना का काम पूरा हो चुका है और बहुत से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन समुद्री जीवों में मछलियों की संख्या तो बहुत कम है, जबकि दो सदी पहले तक समझा जाता था कि समुद्र मछलियों से ही भरा है। वास्तव में समुद्र में सबसे ज़्यादा प्रजातियां तो केकड़ों, झींगों, क्रे फिश यानी चिंगट और श्रिंप की पाई जाती हैं जो कुल समुद्री जीव-प्रजातियों का 19 फीसदी हैं। मछलियां तो महज 12 फीसदी ही हैं। वैज्ञानिकों ने यह दावा दस साल से ज़्यादा वक्त लगाकर दुनिया के 25 प्रमुख सागरों में रहने वाले जीवों को गिनने के बाद किया है। समुद्री जीव प्रजातियों को गिनने का यह भगीरथ प्रयास लगभग उतनी ही बड़ी परियोजना के ज़रिए संपन्न हुआ है जितनी बड़ी परियोजना के ज़रिए गॉड पार्टिकल को ढूंढा गया था। इस कार्यक्रम में अस्सी देश शामिल हुए। इन देशों के 2700 से ज़्यादा वैज्ञानिक दिन रात जुटे और इस कार्यक्रम पर अब तक करीब 70 करोड़ अमरीकी डॉलर खर्च हो चुके हैं। इस विशाल प्रोजेक्ट के ज़रिए समुद्री जीवन के बारे में ऐसी-ऐसी दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस परियोजना के बाद ही यह सच सामने आया कि दुनिया समुद्री जीव जगत के बारे में कितना कम जानती है। इस अभियान के बाद ही पता चला कि वे समुद्री जीव, जिन्हें हम बहुत पसंद करते हैं या जानते हैं या कहें कि जिनकी चर्चा सर्वाधिक होती है (मसलन व्हेल, सी लायन, सील, सी बर्ड, कछुए और दरियाई घोड़ा आदि) की तादाद समुद्र में ज़्यादा नहीं है। ये तो कुल समुद्री जीवों का महज़ एक फीसदी हैं। इस गणना से एक और हैरत की बात पता चली है कि सभी समुद्री जीव यायावर नहीं होते। स्थलीय जीवों की तरह ही तमाम समुद्री जीव भी अपने एक इलाके में सीमित रहते हैं। यह तो नहीं कह सकते कि वे घर या घोंसला बनाकर रहते हैं, लेकिन इन्हें भी अपने इलाके, उसके पर्यावरण से मोह होता है। समुद्री जीवन की गणना की इस परियोजना के प्रमुख न्यूज़ीलैंड के मार्क कॉस्टेलो के मुताबिक ये प्रजातियां बहुत घरेलू किस्म की हैं। ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अंटार्कटिका और दक्षिण अफ्रीका के वे इलाके, जो अलग-थलग पड़े हैं इन घरेलू प्रजातियों के सबसे पसंदीदा इलाके हैं। एक और दिलचस्प जानकारी यह सामने आई है कि आम तौर पर जितने बड़े प्राणी होते हैं उनकी विविधता उतनी ही कम होती है। इस मामले में मछलियां तुलनात्मक रूप से बड़े आकार की प्राणी हैं इसलिए उनकी प्रजातियों की संख्या छोटे-छोटे जीवों की तुलना में बहुत कम है। मसलन क्रम्पटन या क्रस्ट मोलस्क पर्यावरण समुद्र की गहराइयों में जीवन की पड़ताल शर्मिला पाल 2 दिसंबर से पूर्व प्रकाशित न करें समुद्री जीव जगत - 1 रुाोत विविधता के मामले में मछलियों से  हीं आगे हैं। न्यूज़ीलैंड और अंटार्कटिका में मिलने वाली प्रजातियों में आधी ऐसी हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं मिलतीं। समुद्री जीवों में सबसे सामाजिक प्राणी शायद वाइपरफिश है जो दुनिया के एक चौथाई समुद्रों में पाई जाती है और समुद्री जीवों के लिहाज़ से दुनिया के सबसे बढ़िया सागर ऑस्ट्रेलिया, जापान और चीन के हैं। यहां सबसे ज़्यादा जैव विविधता पाई जाती है। यह भी इसी अध्ययन गणना परियोजना से पता चला है। इन तीनों समुद्री क्षेत्रों में बीस हज़ार से ज़्यादा प्रजातियां हैं। जब यह गणना अंतिम रूप से पूरी हो जाएगी (इसी साल के अंत तक) तब अनुमान है कि हमें दो लाख तीस हज़ार समुद्री जीवों के बारे में विस्तार से पता होगा। डॉ. कॉस्टेलो के मुताबिक वैसे प्रजातियों की संख्या तो दस लाख से ज़्यादा है। इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक दस साल मेहनत करने के बाद हम आज समुद्री जीवन के बारे में पहले से दस गुना ज़्यादा जानते हैं। यह सेंसस हमें समुद्री जीवन की बेहतर समझ देता है कि कौन- कौन-सी प्रजातिवास्तव में कहां रह रही है। इसके आधार पर समुद्री जीवन का प्रबंधन और संरक्षण बेहतर तरीके से किया जा सकता है।( स्रोत फीचर्स)

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

फिल्म इंडस्ट्री के पहले एंटी हीरो अशोक कुमार

बॉलीवुड अभिनेता अशोक कुमार की छवि भले ही एक सदाबहार अभिनेता की रही है लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने एंटी हीरो की भूमिका भी निभाई थी।
पिछली शताब्दी के चालीस के दशक में अभिनेता "ं की छवि परंपरागत अभिनेता की होती थी जो रूमानी और साफ सुथरी भूमिका किया करते थे1अशोक कुमार फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने अभिनेता "ं  की परंपरागत शैली को तोड़ते हुये फिल्म ..किस्मत ..में ऐंटी हीरो की भूमिका निभाई थी। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सर्वाधिक कामयाब फिल्मों में बांबे टॉकीज की वर्ष 1943 में निर्मित फिल्म ..किस्मत ..में अशोक कुमार ने एंट्री हीरो की भूमिका निभायी थी। इस फिल्म ने कलकत्ता के ..चित्रा ..थियेटर  सिनेमा हॉल में लगातार 196 सप्ताह तक चलने का रिकार्ड बनाया।
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री मे दादा मुनि के नाम से मशहूर कुमुद कुमार गांगुली उर्प अशोक कुमार का जन्म बिहार के भागलपुर शहर में 13 अक्तूबर 1911 को एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार मंे हुआ था। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा खंडवा शहर से पूरी की 1 इसके बाद उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई इलाहाबाद यूनिर्वसिटी से पूरी की जहां उनकी दोस्ती शशाधर मुखर्जी मुखर्जी से हो गयी जो उन्हीं के साथ पढ़ा करते थे ।
 इसके बाद अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुये अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी। वर्ष 1934 मे न्यू थियेटर मे बतौर लैबेरेटिरी असिटेंट काम कर रहे अशोक कुमार को बांबे टॉकीज मे काम कर रहे उनके बहनोई शशधार मुखर्जी ने अपने पास बुला लिया । वर्ष 1936 मे बांबे टॉकीज की फिल्म जीवन नैया के निर्माण के दौरान फिल्म के मुख्य अभिनेता बीमार पड़ गये 1इस विकट परिस्थति मे बांबे टाकीज के मालिक हिंमाशु राय का ध्यान ..अशोक कुमार ..पर गया और उन्होंने अशोक कुमार से फिल्म मे बतौर अभिनेता काम करने की गुजारिश की 1इसके साथ हीं ..जीवन नैया ..से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फिल्मी सफर शुरू हो गया ।
वर्ष 1939 मे प्रदर्शित फिल्म ..कंगन.बंधन और  झूला में अशोक कुमार ने लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फिल्मों मे उनके अभिनय को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया इसके  साथ हीं फिल्मों की कामयाबी के बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गये । वर्ष 1943 हिमांशु राय की मौत के बाद अशोक कुमार बाम्बे टाकीज को छोड़ फिल्मिस्तान स्टूडियों चले गये 1वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले उन्होंने मशाल, जिद्दी और मजबूर जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया ।
पचास के दशक मे बाम्बे टाकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की इसके साथ हीं उन्होंने जूपिटर थियेटर भी खरीदा 1अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहले ..समाज.. का निर्माण किया लेकिन यह फिल्म बाक्स आफिस पर बुरी तरह नकार दी गयी 1इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फिल्म परिणीता का भी निर्माण किया 1लगभग तीन वर्ष के बाद फिल्म निर्माण क्षेत्र मे घाटा होने के कारण उन्होने  अशोक कुमार प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी । वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फिल्म परिणीता के निर्माण के दौरान फिल्म के फिल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन बन हो गयी 1इसके बाद अशोक कुमार ने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया 1लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमलराय के साथ वर्ष 1963 मे प्रदर्शित फिल्म ..बंदिनी.. मे काम किया और यह फिल्म हिन्दी फिल्म इतिहास की क्लासिक फिल्मों मे शुमार की जाती है ।      
अभिनय मे एकरपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिये अशोक कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिका "ं मे पेश किया 1वर्ष 1958 मे प्रदर्शित फिल्म ..चलती का नाम गाड़ी ..मे उनके अभिनय के नये आयाम दर्शको को देखने को मिले 1हास्य से भरपूर इस फिल्म मे अशोक कुमार के अभिनय को देख दर्शक मंत्रमुग्ध हो गये।
 वर्ष 1968 मे प्रदर्शित फिल्म ..आशीर्वाद..मे अपने बेमिसाल अभिनय के लिये वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किये गये 1इस फिल्म मे उनका गाया गाना ..रेल गाड़ी रेल गाड़ी ..बच्चो के बीच काफी लोकप्रिय हुआ ।  इसके बाद वर्ष 1967 मे प्रदर्शित फिल्म .ज्वैलथीफ.. मे उनके अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला 1इस फिल्म मे वह अपने सिने कैरियर मे पहली खलनायक की भूमिका मे दिखाई दिये 1इस फिल्म के जरिये भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया । वर्ष 1984 मे दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप आपेरा.हमलोग.मे वह सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिये और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया 1दूरदर्शन के लियें हीं अशोक कुमार ने भीमभवानी, बहादुर शाह जफर और उजाले की ओर जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया । अशोक कुमार को मिले सम्मान की चर्चा की जाये तो वह दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये है। वर्ष 1988 मे हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के अवार्ड से भी अशोक कुमार सम्मानित किये गये । लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शको के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार 10 दिसंबर 2001 को सदा के लिये अलविदा कह गये ।(वार्ता)

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

धार्मिक परिवारों के बच्चे कम दयालु होते हैं

धार्मिक उपदेशों में सलाह तो यही दी जाती है व्यक्ति को अन्य लोगों से सहानुभूति रखनी चाहिए और सबकी भलाई को अपने स्वार्थ से ऊपर रखना चाहिए। मगर कई देशों के 1170 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि उदारता की बात आती है, तो गैर-धार्मिक बच्चे दूसरों को अपनी चीज़ें देने में ज़्यादा दिलदार साबित होते हैं। इस अध्ययन के मुखिया, शिकैगो वि·ाविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक ज़्यां डेसेटी का कहना है कि उनका यह अध्ययन दर्शाता है कि नैतिकता सम्बंधी विमर्श को धर्म निरपेक्ष बनाने से मानवीय करुणा में कमी नहीं, वृद्धि होती है। डेसेटी व उनके साथियों ने यह अध्ययन कनाडा, चीन, जॉर्डन, टर्की, दक्षिण अफ्रीका और यूएसए में किया था। इसमें 510 मुस्लिम, 280 ईसाई, और 323 गैर-धार्मिक बच्चे शामिल थे। अध्ययन में यह देखने की कोशिश की गई थी कि बच्चे अन्य बच्चों को अपनी चीज़ें देने में कितने उदार हैं। सबसे पहले 5-12 वर्ष उम्र के बच्चों की मुलाकात कुछ वयस्कों से होती है जो उन्हें अपने मनपसंद 10 स्टिकर चुनने को कहते हैं। ये वयस्क बच्चों को बताते हैं कि वास्तव में स्टिकर तो अन्य बच्चों को भी बांटने हैं मगर उनके पास समय नहीं है। इसलिए बच्चों से कहा गया कि वे चाहें तो अपने 10 स्टिकर्स में से कुछ स्टिकर्स अन्य बच्चों के लिए एक लिफाफे में छोड़ दें। जब बच्चे चले गए तो प्रत्येक लिफाफे में रखे स्टिकर्स को गिना गया। शोधकर्ताओं ने माना कि बच्चों ने जितने स्टिकर्स छोड़े हैं वह उनकी उदारता का द्योतक है। गिनती करने पर पता चला कि गैरधार्मिक बच्चों ने औसतन 4.1 स्टिकर्स अन्य बच्चों के लिए छोड़े थे, जबकि ईसाई बच्चों ने 3.3 और मुस्लिम बच्चों ने 3.2 स्टिकर्स ही अन्य बच्चों के लिए छोड़े थे। अध्ययन के दौरान अभिभावकों का सर्वेक्षण भी किया गया। इससे जोड़कर देखने पर पता चला कि परिवार जितना अधिक धार्मिक होता है, बच्चा उतना ही कम उदार होता है। वैसे बच्चे की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मूल देश, उम्र वगैरह से फर्क पड़ता है मगर धार्मिक अंतर सबसे ज़्यादा असर डालते हैं। इसी अध्ययन में बच्चों को एक वीडियो दिखाया गया था जिसमें कोई बच्चा किसी अन्य बच्चे के साथ गलत व्यवहार (जैसे धक्का देना) करता दिखाया जाता है। इसके बाद बच्चों से कहा गया कि वे यह फैसला करें कि वह व्यवहार कितना गलत था और ऐसा व्यवहार करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए। इस अध्ययन के परिणाम दर्शाते हैं कि आम तौर पर धार्मिक बच्चे ऐसे व्यवहार को बहुत गलत मानते हैं और सख्त से सख्त सज़ा दिलवाना चाहते हैं  जबकि गैर-धार्मिक पृष्ठभूमि के बच्चों ने उसी व्यवहार को कम खतरनाक माना। उपरोक्त दोनों परिणामों की व्याख्या आसान नहीं है। मगर इरुााइल के हाइफा वि·ाविद्यालय के मनोवैज्ञानिक बेंजामिन बैट-हल्लाहमी को लगता है कि धार्मिक लोग आम तौर पर मानते हैं कि कोई बाह्र शक्ति है जो दंड देती है। दूसरी ओर, धर्म निरपेक्ष परिवारों के बच्चे नैतिक नियमों का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि ऐसा करना सही है। इसलिए जब बाह्र शक्ति की निगरानी न हो तो अमूमन धर्म निरपेक्ष लोगों का नैतिक व्यवहार कहीं बेहतर होता है। (रुाोत फीचर्स)

सोमवार, 16 नवंबर 2015

गूगल का प्रयोग अब भारत में

गूगल के उस लून प्रोजेक्ट की 7 खास बातें, जो सुदूर इलाकों का कायापलट कर सकता है

आसमान में उड़ते गुब्बारों के जरिये इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाले लून प्रोजेक्ट की सात महत्वपूर्ण बातें:
1- गूगल के ‘प्रोजेक्ट लून’ में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका पोलीथिलीन से बने बड़े-बड़े गुब्बारों की है. इन गुब्बारों में हीलियम गैस भरी होती है तथा इनका आकार 15 मीटर व्यास में फैला होता है.
2- ये गुब्बारे पृथ्वी की सतह से लगभग 20 किलोमीटर ऊपर स्ट्रैटोस्फियर में चक्कर लगाते हैं. इनके जरिये इन्टरनेट सेवा देने का सफल प्रयोग गूगल द्वारा 2013 में न्यूजीलैंड और 2014 में कैलिफोर्निया और ब्राजील में किया जा चुका है.
3- इन गुब्बारों में लगे इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम को लगातार ऊर्जा देने के लिए सोलर पैनल के साथ-साथ हवा से ऊर्जा प्राप्त करने वाले यंत्र भी लगाए हैं. गूगल इन गुब्बारों की दूरी और स्थिति को अपने जमीनी केंद्र से नियंत्रित कर सकता है.
4- गूगल द्वारा भारत में इस प्रोजेक्ट का प्रयोग बीएसएनएल के साथ मिलकर 2.6 गेगा हर्ट्ज़ बैंड के ब्रॉड बैंड स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल से किया जाना है.
5- गूगल के अनुसार इस प्रोजेक्ट में प्रत्येक गुब्बारा वायरलेस तकनीक एलटीई या 4जी के जरिये 40 किलोमीटर के व्यास में इंटरनेट की सुविधा देगा. वह दूरसंचार कंपनियां के स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर हर उस सिस्टम या मोबाइल को तेज इंटरनेट उपलब्ध कराएगा जिसमें 4जी या एलटीई तकनीक की सुविधा है.
6- भारत में प्रोजेक्ट लून के दो सबसे बड़े फायदे हो सकते हैं. एक, इससे भारत के उन गांवों में भी तेज इंटरनेट उपलब्ध होगा जहां अभी ठीक से 3जी की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. दूसरा, इस प्रोजेक्ट से दूरसंचार कंपनियां कम पैसों में इंटरनेट उपलब्ध करा सकेंगी क्योंकि उन्हें टावर लगाने और उन्हें मैनेज करने के खर्च से मुक्ति मिल जायेगी.
7- जहां भारत में अभी इस प्रोजेक्ट को सिर्फ टेस्ट की ही अनुमति मिली है वहीँ पड़ोसी देश श्रीलंका गूगल से इस प्रोजेक्ट के लिए कई महीने पहले करार भी कर चुका है. 1989 में दक्षिण एशिया में सबसे पहले मोबाइल की शुरुआत करने वाला और साल 2013 में सबसे पहले 4-जी सर्विस की शुरुआत करने वाला देश श्रीलंका ही था. (सत्याग्रह)

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

पार्किंसन रोग को सूंघने की क्षमता

एक महिला जॉय मिलने ने जब पार्किंसन सम्बंधी एक सम्मेलन में बताया कि वह पार्किंसन रोग को सूंघ सकती हैं तो किसी ने उस पर वि·ाास नहीं किया। मगर जब बाद में उन्होंने अपनी इस क्षमता का प्रदर्शन किया तो रोग की पहचान की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। मिलने ने सबसे पहले अपने पति के शरीर की गंध में परिवर्तन महसूस किया, जबकि पार्किंसन रोग के लक्षण प्रकट नहीं हुए थे। आगे चलकर उन्होंने एक संस्था में काम करते हुए यह बात अन्य रोगियों के बारे में भी महसूस की। एडिनबरा वि·ाविद्यालय के टाइलो कुनाथ ने मिलने को अपनी प्रयोगशाला में आमंत्रित किया और अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने को कहा। उन्हें 12 टी- शर्ट सूंघने को दिए गए जिनमें से 6 पार्किंसन रोगियों के थे। मिलने ने 12 में से 11 की सही पहचान की। एक मामले में वे गलत साबित हुई - उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को पार्किंसन रोगी बताया जिसे रोग नहीं था। मगर आश्चर्य की बात यह रही कि एक साल के अंदर- अंदर ही उस व्यक्ति में रोग के लक्षण प्रकट हो गए। कुनाथ व उनके साथियों ने पूरे मामले की व्यवस्थित छानबीन शुरू की। मिलने से पूछा गया कि उन्हें यह गंध टी-शर्ट के किस हिस्से में सबसे ज़्यादा महसूस होती है। जब उन्होंने बताया कि गंध का रुाोत शर्ट की कॉलर है, तो शोधकर्ता अचरज में पड़ गए क्योंकि आम तौर पर सबसे ज़्यादा पसीना बगलों में आता है और उन्हें उम्मीद थी कि उसी हिस्से से सबसे ज़्यादा गंध आएगी। मगर जब मिलने ने गर्दन की ओर इशारा किया
तो नए सिरे से खोजबीन शुरू हुई। इसके अलावा एक बात और हुई। मिलने की कहानी प्रसारित होने के बाद
कई और व्यक्तियों ने दावा किया है कि उन्हें पार्किंसन की गंध पहचान में आती है। अब इन लोगों के साथ प्रयोग शुरू किए जाएंगे। गर्दन में से गंध की बात से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि यह गंध पसीना ग्रंथियों से नहीं बल्कि एक अन्य किस्म की ग्रंथियों में से निकल रही है, जिन्हें सेबेशियस ग्रंथियां कहते हैं। अब पार्किंसन रोगियों की सेबेशियस ग्रंथियों के रुााव का विश्लेषण विभिन्न तरीकों से किया जा रहा है ताकि पार्किंसन से सम्बंधित रासायनिक अणुओं की पहचान की जा सके। जब सेबेशियस ग्रंथियों पर बात टिक गई तो शोधकर्ताओं ने पार्किंसन सम्बंधी पुराने शोध पत्रों का अध्ययन फिर से किया। पता चला कि 1920 के दशक
में ही यह देखा गया था कि पार्किंसन रोगियों में सीबम निर्माण की प्रक्रिया में परिवर्तन होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि पार्किंसन रोगियों में त्वचा थोड़ी मोमी हो जाती है। यह बात त्वचा विशेषज्ञों ने रिपोर्ट की थी मगर तंत्रिका वैज्ञानिकों ने इसकी उपेक्षा की थी। अब त्वचा की गंध और पार्किंसन होने की संभावना के बीच सम्बंध उजागर होने के बाद कई विधियों से उन आणविक पहचान चिंहों की खोज की जाएगी जो समय रहते रोग के आसार दर्शा सकें।
एक रोचक बात यह है कि वैज्ञानिक इस काम में खोजी कुत्तों की भी मदद लेने पर विचार कर रहे हैं। फिलहाल
जीव वैज्ञानिक मामलों में कुछ हद तक खोजी कुत्तों का इस्तेमाल हुआ है। जैसे जुड़वां बच्चों के बीच भेद  करने या कतिपय कैंसर और मधुमेह की शिनाख्त के लिए। (रुाोत फीचर्स)

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

पारा प्रदूषण का शिकार - कोडईकानल

प्रदूषण
डॉ. राम प्रताप गुप्ता
तमिलनाड़ु की पालानी पहाड़ियों पर 2133 मीटर की ऊंचाई पर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध हिल स्टेशन कोडईकानल स्थित है। यहीं पर स्थित इसी नाम की झील, यूकेलिप्टस, बबूल, कीकर, डेहलिया आदि के विशाल वृक्ष इस हिल स्टेशन के आकर्षण को और बढ़ा देते हैं। इसकी स्वास्थ्यप्रद जलवायु के कारण पर्यटक यहां आते ही रहते थे। लेकिन यह हिल स्टेशन स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति के माध्यम की जगह अब अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का जनक बन गया है। हिन्दुस्तान यूनीलीवर कंपनी ने अमेरिका के  यार्क प्रांत के वाटर टाउन स्थित अपने थर्मामीटर कारखाने को यहां स्थानांतरित कर दिया था। अमेरिका के वाटर टाउन में स्थित और प्रदूषण फैलाने वाले थर्मामीटर के कारखाने का कोडईकनाल में स्थानांतरण विकसित राष्ट्रों की प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में स्थानांतरण की नीति का ही अंग था। ऐसे स्थानांतरण को वे पिछड़े राष्ट्रों के विकास में योगदान कहते हैं। कोडईकानल के 400 परिवारों के लिए पर्यटन मौसम की समाप्ति के पश्चात रोज़गार के स्थायी रुाोत उपलब्ध ही नहीं थे और वे छुटपुट कार्य कर अपना जीवन बिताते थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि हिन्दुस्तान यूनीलीवर अपना थर्मामीटर बनाने का कारखाना वहां स्थानांतरित कर रहा है जिसमें 400 लोगों को स्थायी और बेहतर आय वाले रोज़गार प्राप्त होंगे, तो वे बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि उनमें से कुछ लोगों को अच्छा रोज़गार प्राप्त हो सकेगा। जब यूनीलीवर का थर्मामीटर बनाने का कारखाना अमेरिका के वाटर टाउन से यहां स्थानांतरित कर दिया गया तो कारखाने में रोज़गार प्राप्ति के कुछ ही दिनों के बाद इसमें कार्यरत श्रमिक अच्छी आय के स्थान पर गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के शिकार होने लगे, उनकी रोज़गार प्राप्ति की सारी खुशी समाप्त हो गई। सन 1986 में कोडईकानल में स्थानांतरित थर्मामीटर के कारखाने में उस समय तक थर्मामीटर बनाए जाते रहे जब तक कि सन 2001 में इसे सरकार द्वारा बंद नहीं कर दिया गया। इस अवधि में इसमें 1100 श्रमिक कार्यरत थे। श्रमिकों का कथन है कि उस समय प्रबंधकों ने न तो पारे के संपर्क से होने वाली नाना प्रकार की गंभीर बीमारियों के बारे में कोई चेतावनी दी और न ही दस्ताने और मुंह पर लगाने के लिएकोई नकाब दिए गए ताकि वे पारे के संपर्क तथा पारे की वाष्प से बच सकें। कारखाने के स्वामियों ने कार्य की समाप्ति पर संपर्क में आए पारे को धोने की कोई व्यवस्था भी नहीं की। उन्हें पहनने के लिए जो कपड़े दिए जाते थे वे भी तीन- चार रोज़ में एक बार ही धुलवाए जाते थे, जबकि उन्हें रोज़ धुलाया जाना चाहिए। यूनीलीवर कोडईकानल में निर्मित थर्मामीटरों को अमेरिका स्थित फैचने मेडिकल कंपनी को भेज देता था जो उन्हें यू.के., कनाड़ा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मन और स्पेन को निर्यात करती थी। कारखाने में लगने वाला पारा और कांच भी अमेरिका से आयात किए जाते थे। इस तरह भारत की न तो कच्चे माल के रुाोत के रूप में और न ही तैयार माल के बाज़ार के रूप में कोई भूमिका थी। शीघ्र ही 18 पूर्व श्रमिक पारे के संपर्क से उत्पन्न बीमारियों के कारण मर गए। अन्य कई आज भी बीमारियों के शिकार हैं। पारे को प्रयुक्त करने वाले कारखाने में बरती जाने वाली सावधानियों की उपेक्षाओं का परिणाम यह हुआ कि मज़दूर तीन-चार वर्ष के पश्चात गंभीर बीमारियों का शिकार होने लगे। उदाहरण के लिए एक महिला हेलन मारगरेट ने सन 1996 से 1999 तक कारखाने में कार्य किया। शीघ्र ही वह अनेक गंभीर रोगों का शिकार हो गई। सन 2000 में जन्मा उनका दूसरा पुत्र मानसिक दृष्टि से अत्यंत कमज़ोर था। वह मानसिक दृष्टि से कमज़ोर बच्चों के लिए चर्च द्वारा स्थापित विद्यालय में पढ़ता था और मारगरेट को दिन में 3-4 बार जाकर बच्चे को संभालना पड़ता था। यह सब थर्मामीटर फैक्टरी में कार्य करने के दौरान पारे के संपर्क का परिणाम था, इस बात का उस समय तो उसे पता ही नहीं था। एक अन्य महिला संगीता बताती है कि उसके पिता गोविन्दम फैक्ट्री में संविदा चौकीदार थे। कार्य के दौरान उन्हें फैक्ट्री के चारों और 3-4 बार चक्कर लगाने पड़ते थे और वे फेंके गए पारे और कांच के संपर्क में आते थे। परिणामस्वरूप उनके शरीर में हीमोग्लोबीन की अत्यंत कमी हो गई और सन 2000 में उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। पारे के कारखाने में कार्य के दौरान श्रमिकों के पारे से संपर्क के कारण उत्पन्न गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के लिए हिन्दुस्तान यूनीलीवर को कोई क्षतिपूर्ति और जुर्माना न देना पड़े, इस हेतु उसने अपने स्तर पर कई अध्ययन कराए और बताने की कोशिश की कि कोडईकानल के कारखाने के श्रमिकों और वहां के निवासियों की स्वास्थ्य की समस्याओं का थर्मामीटर के कारखाने से कोई सम्बंध नहीं है। सन 2006 में अपने द्वारा कराए गए अध्ययन के निष्कर्षों को इंडियन जर्नल ऑफ ऑक्यूपेशनल एण्ड एनवायरमेंटल हेल्थ में प्रकाशित कराया, जिसमें बताया गया था कि पूर्व के नियमित और संविदा 255 श्रमिक स्वास्थ्य सम्बंधित अनेक समस्याओं के शिकार तो थे, परन्तु इन समस्याओं का थर्मामीटर कारखाने में कार्य से कोई सम्बंध नहीं है। परन्तु जिन 255 श्रमिकों के स्वास्थ्य की जांच का दावा किया गया, उनका कथन है कि उनसे किसी ने इस बारे में कभी कोई बात ही नहीं की थी। हिन्दुस्तान यूनीलीवर कंपनी ने दिल्ली स्थित ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ और इंडस्ट्रियल टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च सेंटर से भी प्रमाण- पत्र प्राप्त कर लिए कि कोडईकानल के श्रमिकों और अन्य की स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का थर्मामीटर के कारखाने से कोई स्पष्ट सम्बंध नहीं है। इन प्रमाण पत्रों के बावजूद पारे के प्रदूषण के शिकार कोडईकानल के निवासियों को सन 2001 में यह पता चला कि थर्मामीटर का बंद कारखाना कचरे को वहां के एक गड्ढे में फेंक रहा है। यह कचरा बोरों में पैक कर फेंका गया था जिनसे पारा रिस रिस कर वहां की भूमि पर फैल रहा था। कुछ कचरा कंपनी के आधिपत्य वाले शोला के वन में फेंका गया था। इसके बाद कारखाने के 400 श्रमिकों ने फैक्ट्री के दरवाज़े पर क्षतिपूर्ति हेतु आंदोलन किया। यह आंदोलन आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। थर्मामीटर के कारखाने से  से पारे और पारे की वाष्प के कारण कोडईकानलऔर आसपास के क्षेत्र में फैले प्रदूषण के बारे में परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि 25 एकड़ में फैली कोडईकानल झील का पानी प्रदूषित हो गया है। उसके पानी में 7.9 माइक्रोग्राम से लेकर 8.3 माइक्रोग्राम प्रति किलो पारा पाया गया है जो सुरक्षित मात्रा से कई गुना अधिक था। कोडाईकनाल झील की मछलियों में 120 से लेकर 210 माइक्रोग्राम पारा पाया गया। जिसके कारण लोगों के लिए इनके खाने लायक नहीं रह जाने के कारण मछुआरों का व्यवसाय भी समाप्त हो गया। थर्मामीटर बनाने के कारखाने के आसपास की भूमि में पारे की मात्रा सुरक्षित मात्रा से 250 गुना अधिक पाई गई। आसपास की भूमि में पारे की मात्रा 1.32 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर थी जबकि सुरक्षित मात्रा 0.5-1 नैनोग्राम प्रति घन मीटर होती है। यह मात्रा सुरक्षित से 132 गुना से लेकर 264 गुना अधिक थी। कंपनी ने लोगों के बढ़ते दबाव के कारण कारखाने के आसपास पारे को हटाने के लिए कुछ कदम तो उठाए थे, परन्तु व्यापक पर्यावरणीय प्रभावों को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया। थर्मामीटर कारखाने के अंकेक्षण से पता चलता है कि उसने 1.2 टन पारा पैराम्बूर के शोला वन के क्षेत्र में छोड़ा था। पर्यावरण के लिए संघर्षरत नित्यानंद जयरमण, जिन्होंने फैक्ट्री में कार्य किया था, का कथन है कि यह कारखाना पर्यावरण उपनिवेशवाद का सशक्त उदाहरण है। थर्मामीटर के कारखाने से फैला प्रदूषण कोडईकानल तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि सैकड़ों कि.मी. दूर तक के स्थान भी उसके शिकार हो गए। कोडईकानल की पहाड़ियों से बहने वाला वर्षा का पानी अपने साथ पारे को दूरस्थ अंचलों तक ले गया और 130 कि.मी. दूर स्थित मदुराई का पानी भी पारे से प्रदूषित पाया गया। कोडाईकनाल की पारे से प्रदूषित पहाड़ियों से बहने वाले वर्षा के पानी के साथ प्रदूषित पारा बहकर जाना ही था और नीचे स्थित ग्रामों, शहरों, कस्बों के निवासियों को कोडईकानल् प्रभावित होना ही था। परन्तु यूनीलीवर अपने द्वारा फैलाए गए पारे के प्रदूषण का दायित्व स्वीकार करने को आज भी तैयार नहीं है। सन 2015 में पारे के कारखाने के पूर्व मज़दूरों और कर्मियों ने प्रदर्शन कर कंपनी द्वारा फैलाए गए पारा- जनित बीमारियों और स्वास्थ्य को पहुंची क्षति के बदले क्षतिपूर्ति की मांग की। उनकी यह भी मांग थी कि यूनीलीवर अपने कारखाने के फैले कचरे को साफ करे और उसकी समुचित देखरेख की व्यवस्था भी करे। सन 2007 में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति के द्वारा श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पारे के प्रदूषण के पर्याप्त सबूत नहीं पाए गए, इससे यूनीलीवर जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की सरकारों और व्यवस्था पर प्रभाव का अंदाज़ा लग सकता है। यूनीलीवर द्वारा कोडईकानल में फैलाए गए प्रदूषण के पर्याप्त सबूतों और पूर्व श्रमिकों और उनकी संतानों के स्वास्थ्य पर पड़े प्रतिकूल प्रभावों के तमाम प्रमाणों की अनदेखी कर यूनीलीवर का कथन है कि अब तक उसका इतिहास सस्टेनेबल विकास का रहा है और भविष्य में भी रहेगा। यूनीलीवर द्वारा कोडईकानल में थर्मामीटर के कारखाने का स्थानांतरण विकसित राष्ट्रों की उस साजिश का परिणाम है जिसके अंतर्गत पर्यावरण और स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले उद्योगों को तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में स्थानांतरित कर दिया जाता है। जब हमारी वर्तमान सरकार अमेरिका और युरोप के पूंजीपतियों को भारत में निवेश करने, अधिक मुनाफा कमाने देने की बात करती है तो उसे इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कहीं विदेशी कंपनियों द्वारा यहां स्थापित कारखाने यहां के पर्यावरण के विनाश के माध्यम न बन जाएं। यूनीलीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भ्रम फैलाने वाली घोषणाओं के पीछे की वास्तविकताओं के प्रति हमें सावधान रहना ही होगा। (रुाोत फीचर्स)

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

मां के चरित्र को निरूपा राय ने दिया नया आयाम

हिन्दी सिनेमा में निरूपा रॉय को ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपने किरदारों से मां के चरित्र को नया आयाम दिया।
निरूपा राय मूल नाम कोकिला का जन्म 4 जनवरी 1931 को गुजरात के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ। उनके पिता रेलवे में काम करते थे। उन्होंने चैथी तक  शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल राय से हो गया। शादी के बाद निरूपा राय मुंबई आ गयी। उन्हीं दिनो निर्माता -निर्देशक बी.एम.व्यास ने अपनी नई फिल्म रनकदेवी के लिये नये चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फिल्म में कलाकारों की आवश्यकता के लिये अखबार में विज्ञापन निकाला। कमल राय अपनी पत्नी को लेकर बी.एम.व्यास से मिलने गये और अभिनेता बनने की पेशकश की लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता के लायक नहीं है लेकिन यदि वह चाहे तो उनकी पत्नी को फिल्म में अभिनेत्री के रूप में काम मिल सकता है। फिल्म रनकदेवी में निरूपा राय 150 रूपये माह पर काम करने लगी लेकिन बाद में उन्हें इस फिल्म से अलग कर दिया गया।
निरूपा राय ने अपने सिने करियर की शुरूआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फिल्म गणसुंदरी से की। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म हमारी मंजिल से उन्होंने हिंदी फिल्म की  "र भी रूख कर लिया।  " पी दत्ता के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई। उसी वर्ष उन्हें जयराज के साथ फिल्म गरीबी में काम करने का अवसर मिला। इन फिल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गयी।
वर्ष 1951 में निरूपा राय की एक और महत्वपूर्ण फिल्म 'हर हर महादेव' प्रदर्शित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने देवी पार्वती की भूमिका निभाई। फिल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गयी। इसी दौरान उन्होंने फिल्म वीर भीमसेन में द्रौपदी का किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया।  पचास और साठ के दशक में निरूपा राय ने जिन फिल्मों में काम किया उनमें अधिकतर फिल्मों की कहानी धार्मिक और भक्तिभावना से परिपूर्ण थी। हालांकि वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म सिंदबाद द सेलर में उन्होंने नकारात्मक चरित्र भी निभाया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म दो बीघा जमीन उनके करियर के लिये मील का पत्थर साबित हुयी। विमल राय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दी। फिल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिये उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुयी।
वर्ष 1955 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी फिल्म 'मुनीम जी' निरूपा राय की अहम फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने देवानंद की मां की भूमिका निभाई। फिल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिये वह सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गयी लेकिन इसके बाद छह वर्ष तक उन्होंने मां की भूमिका स्वीकार नहीं की।
 वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म छाया में उन्होंने एक बार फिर  मां की भूमिका निभाई। इसमें वह आशा पारेख की मां बनी। फिल्म में उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुये उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म दीवार निरूपा राय के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधत्व करने वाले शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के मां की भूमिका निभाई। फिल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से मां के चरित्र को जीवंत कर दिया। निरूपा राय के सिने करियर पर नजर डालने पर पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की मां के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही है। उन्होंने सर्वप्रथम फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। इसके बाद खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, अमर अकबर एंथनी, सुहाग, इंकलाब, गिरफ्तार, मर्द  और गंगा जमुना सरस्वती जैसी फिल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। वर्ष 1999 में प्रदर्शित फिल्म 'लाल बादशाह' में वह आखिरी बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। उन्होंने अपने पांच दशक के लंबे करियर में लगभग 300 फिल्मों में अभिनय किया। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुगध करने वाली निरूपा राय 13 अक्टूबर 2004 को इस दुनिया को अलविदा कह गयी।