शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

मुनव्वर राणा की दो नज्में

विभाजन के समय जो लोग हिंदोस्तान से पाकिस्तान चले गए, उनको वहाँ 'मुहाजिर'(शरणार्थी) कहा गया।
मुहाजिरों पर लखनऊ के सुविख्यात शायर मुनव्वर राना साहब ने लगभग साढ़े चार सौ अशआर पर आधारित एक लंबी ग़ज़ल 'मुहाजिरनामा' कही।
हालाँकि ये ग़ज़ल ख़ासतौर पर भारत-पाकिस्तान के बँटवारे से जुड़े मुहाजिरों के लिए लिखी गयी है, लेकिन दुनिया के दूसरे मुहाजिरों के लिए भी ये उतनी ही प्रासंगिक है।
इस ग़ज़ल के कुछ चुनिंदा अशआर देखें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ दें।
०००

मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है, हम उतना छोड़ आए हैं
(मुहाजिर - शरणार्थी)

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

कई दर्जन कबूतर तो हमारे पास ऐसे थे
जिन्हें पहना के हम चांदी का छल्ला छोड़ आए हैं

वो टीपू जिसकी क़ुर्बानी ने हमको सुर्ख़-रू रक्खा
उसी टीपू के बच्चों को अकेला छोड़ आए हैं
(टीपू - टीपू सुल्तान; सुर्ख़-रू - कामयाब/अच्छी हालत में)

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं

अभी तक हमको मजनूँ कहके कुछ साथी बुलाते हैं
अभी तक याद है हमको कि लैला छोड़ आए हैं

'मियाँ' कह कर हमारा गाँव हमसे बात करता था
ज़रा सोचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आए हैं

वो इंजन के धुएँ से पेड़ का उतरा हुआ चेहरा
वो डिब्बे से लिपट कर सबको रोता छोड़ आए हैं

हमारा पालतू कुत्ता हमें पहुँचाने आया था
वो बैठा रो रहा था, उसको रोता छोड़ आए हैं

बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना
सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं

बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं
(शाना - कन्धा)

कई होठों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी
कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं

बसी थी जिसमें ख़ुश्बू मेरी अम्मी की जवानी की
वो चादर छोड़ आए हैं, वो तकिया छोड़ आए हैं

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
(उन्नाव - यूपी का एक ज़िला, मोहान - एक क़स्बा)
(नोट: यहाँ 'हसरत' शब्द महान उर्दू शायर, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी 'हसरत मोहानी' के लिए इस्तेमाल किया गया है।)

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर-गली, अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं

गले मिलती हुई नदियाँ, गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं

वज़ू करने को जब भी बैठते हैं, याद आता है
कि हम जल्दी में जमना का किनारा छोड़ आए हैं
(वज़ू - नमाज़ पढ़ने से पहले मुँह-हाथ-पैर धोने की एक निश्चित और अनिवार्य प्रक्रिया; जमना - यमुना)

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा, छोड़ आए हैं
(सेहरा - शादी के मौक़े पर दूल्हा और उसके घरवालों के बारे में नज़्म या ग़ज़ल के रूप में लिखा गया कलाम)

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं

अभी तक बारिशों में भीगते ही याद आता है
कि हम छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं

भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं

ये हिजरत तो नहीं थी बुज़दिली शायद हमारी थी
कि हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाँचा छोड़ आए हैं
(हिजरत - एक जगह से दूसरी जगह रहने के लिए जाना)

हमारी अहलिया तो आ गयी, माँ छुट गई आख़िर
कि हम पीतल उठा लाये हैं, सोना छोड़ आए हैं
(अहलिया - पत्नी)

महीनों तक तो अम्मी ख़्वाब में भी बुदबुदाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं

वज़ारत भी हमारे वास्ते कम-मर्तबा होगी
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं
(वज़ारत - मंत्रालय का पद; कम-मर्तबा - छोटे दर्जे की)

यहाँ आते हुए हर क़ीमती सामान ले आए
मगर इक़बाल का लिक्खा तराना छोड़ आए हैं

कल एक अमरुद वाले से ये कहना पड़ गया हमको
जहाँ से आये हैं हम इसकी बग़िया छोड़ आए हैं

वो हैरत से हमें तकता रहा कुछ देर, फिर बोला
वो संगम का इलाक़ा छुट गया या छोड़ आए हैं?
(नोट: संगम यानी इलाहाबाद के मीठे अमरूद बहुत मशहूर हैं।)

अभी हम सोच में गुम थे कि उससे क्या कहा जाए
हमारे आँसुओं ने राज़ खोला, 'छोड़ आए हैं'

गुज़रते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है
किसी को उसके कमरे में सँवरता छोड़ आए हैं

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रक्खा छोड़ आए हैं

तू हमसे चाँद इतनी बेरुख़ी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती ज़िंदगी अपनी
वहाँ इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं

हमें मरने से पहले सबको ये ताकीद करनी है
किसी को मत बता देना कि क्या-क्या छोड़ आए हैं
(ताकीद - नसीहत)

ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर 'राना'
कि हम सरहद से पीछे इसका मक़्ता छोड़ आये हैं
(ना-मुकम्मल - अधूरी; मक़्ता - ग़ज़ल का आख़िरी शेर जिसमें शायर का तख़ल्लुस यानी उपनाम भी आता है)

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"आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ... पुराना इतवार मिला है ... "

जाने क्या ढूँढने खोला था उन बंद दरवाजों को ...

अरसा बीत गया सुने उन धुंधली आवाजों को ...

यादों के सूखे बागों में जैसे
एक गुलाब खिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

कांच की एक डिब्बे में कैद ...
खरोचों वाले कुछ कंचे ...

कुछ आज़ाद इमली के दाने ...
इधर उधर बिखरे हुए ...

मटके का इक चौकोर लाल टुकड़ा ...
पड़ा बेकार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

एक भूरी रंग की पुरानी कॉपी...
नीली लकीरों वाली ...

कुछ बहे हुए नीले अक्षर...
उन पुराने भूरे पन्नों में ...

स्टील के जंक लगे शार्पनर में पेंसिल का एक छोटा टुकड़ा ...
गिरफ्तार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

बदन पर मिटटी लपेटे एक गेंद पड़ी है ...

लकड़ी का एक बल्ला भी है जो नीचे से छीला छीला है ...

बचपन फिर से आकर साकार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

एक के ऊपर एक पड़े ...
माचिस के कुछ खाली डिब्बे ...

बुना हुआ एक फटा सफ़ेद स्वेटर ...
जो अब नीला नीला है ...

पीला पड़ चूका झुर्रियों वाला एक अखबार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

गत्ते का एक चश्मा है ...
पीला प्लास्टिक वाला ...

चंद खाली लिफ़ाफ़े बड़ी बड़ी डाक टिकिटों वाले ...

उन खाली पड़े लिफाफों में भी छुपा एक इंतज़ार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

पापा ने चार दिन रोने के बाद जो दी थी वो रुकी हुई घडी ...

दादा जी के डायरी से चुराई गयी वो सुखी स्याही वाला कलम मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

कई बरस बीत गए ...

आज यूँ महसूस हुआ रिश्तों को निभाने की दौड़ में भूल गये थे जिसे ...

यूँ लगा जैसे वही बिछड़ा ...
पुराना यार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर .... पुराना इतवार मिला है

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