सोमवार, 21 दिसंबर 2015

आखिर क्या है सोमरस ?

कितने ही टी.वी. सीरियल में दिखाया जाता है कि देवता इन्द्र की सभा में सुन्दर अप्सराएँ सोमरस पिलाती हैं और सभी देव उसका आनन्द लेते हैं। इस सोम रस को लोग शराब बताया करते हैं पर ये धारणा बिल्कुल गलत है। अक्सर शराब के समर्थक यह कहते सुने गए हैं कि देवता भी तो शराब पीते थे। सोमरस क्या था, शराब ही तो थी। क्या सच में वैदिक काल में सोमरस के रूप में शराब का प्रचलन था या ये सिर्फ एक भ्रम है? आइये जानें...
क्या देवता शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते थे ? कहीं वे सभी भंग तो नहीं पीते थे जैसा कि शिव के बारे में प्रचलित है? वैसे उस समय आचार-विचार की पवित्रता का इतना ध्यान रखा जाता था कि जरा भी कोई इस पवित्रता को भंग करता था उसका बहिष्कार कर दिया जाता था या फिर उसे कठिन प्रायश्चित करने होते थे। तो यह सामान्य-सी बात है कि कोई भी धर्म कैसे शराब पीने और मांस खाने की इजाजत नहीं दे सकता.

ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा

और फिर ये भी तो सच है की धर्म-अध्यात्म की किताबों में हम जगह जगह पर नशे की निंदा या बुराई सुनते हैं, तब धर्म के रचनाकर और देवता कैसे शराब पी सकते हैं? ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया - "हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्" यानी की सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।
ऋग्वेद मैं ही कहा गया है - "यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्र देव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5)" "हे वायुदेव यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

सोमरस और शराब एक नहीं

ऋग्वेद में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। इसलिए यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था।

हवन में इस्तमाल होता था

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है। सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।

सोमरस की जगह पंचामृत

आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।
सोम लताएं पहाड़ों में पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने के जिक्र है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है।

कहाँ पाया जाता है सोम

कुछ वर्ष पहले ईरान में इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। हालांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।
अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।

संजीवनी बूटी

कुछ विद्वान इसे ही 'संजीवनी बूटी' कहते हैं। सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर 'सोम' की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।
अगर हम ऋग्वेद के नौवें 'सोम मंडल' में लिखे सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी।
ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।
वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।
ऋग्वेद में लिखा है "स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम। उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु" यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।
शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।
कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- 'यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है.
कण्व ऋषियोंके अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है'। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।
सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ' यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।
सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

कैंसर की सस्ती और सुरक्षित दवा

17 जनवरी 2007 के न्यू साइन्टिस्ट में एक आनलाइन लेख प्रकाशित हुआ था कि एक सस्ती और सामान्य दवा के द्वारा ज़्यादातर कैंसर खत्म हो सकते हैं केवल उनकी अमरता को समाप्त करके। डाइक्लोरोएसिटेट (डीसीए) दवा को पिछले कई वर्षों से दुर्लभ मेटाबॉलिक विकार के इलाज में इस्तेमाल किया जाता रहा है और यह दवा सुरक्षित उपचार के रूप में जानी जाती है। इस दवा के लिए कोई पेटेंट नहीं है, इसका मतलब है कि इस दवा को किसी भी नई विकसित दवा की कीमत से बहुत कम में बनाया जा सकता है। कनाडा की युनिवर्सिटी ऑफ एलबर्टा के एवानगेलास माइकेलाकिस और उनके साथियों ने डीसीए का परीक्षण शरीर के बाहर मनुष्य कोशिकाओं के कल्चर के साथ किया तो पाया कि यह फेफड़े, स्तन और मस्तिष्क कैंसर कोशिकाओं को मारती है, जबकि स्वस्थ मानव कोशिकाओं को प्रभावित नहीं करती है। मनुष्य कैंसर कोशिका के द्वारा चूहों में कैंसर पैदा करवाया गया। पानी में डीसीए घोलकर कुछ हफ्तों तक चूहों को देने के बाद देखा तो पाया कि उनमें भी कैंसर कोशिकाएं कम हो गर्इं थीं। डीसीए कैंसर कोशिका के एक महत्वपूर्ण गुण पर आक्रमण करता है। कैंसर कोशिकाएं ऊर्जा उत्पादन का काम माइट्रोकॉण्ड्रिया में नहीं बल्कि पूरी कोशिका में सम्पन्न करती हैं। इस प्रक्रिया  को ग्लाइकोलिसिस कहते हैं। अभी तक यह अनुमान था कि कैंसर कोशिकाएं ग्लाइकोलिसिस का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि उनके माइट्रोकॉण्ड्रिया नष्ट हो जाते हैं। माइकेलाकिस के प्रयोग से पता चलता है कि कैंसर कोशिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया खत्म नहीं होते। डीसीए कैंसर कोशिका में माइट्रोकॉण्ड्रिया को पुन: सक्रिय कर देती है। इसके बाद कोशिका मर जाती है। माइकेलाकिस का कहना है ऊर्जा के रुाोत के रूप में ग्लाइकोलिसिस का उपयोग तब शुरू होता है जब कोशिका किसी गठान के असामान्य पर्यावरण में होती हैैं। इसके चलते माइट्रोकॉण्ड्रिया को ठीक से काम करने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती है। इसके बाद वे जीवनयापन के लिए अपने माइटोकॉण्ड्रिया को बंद करके गलाइकोलिसिस के ज़रिए ऊर्जा उत्पन्न करने लगती हैं। मगर माइट्रोकॉण्ड्रिया कोशिका में एक और काम करता है - एपोप्टोसिस। एपोप्टोसिस वह प्रक्रिया है जिसके ज़रिए कोशिका खुदकुशी करती है। जब कोशिका अपने माइटोकॉण्ड्रिया को बंद कर देती है तो वे अमर बन जाती हैं। डीसीए के द्वारा एपोप्टोसिस दोबारा सक्रिय होता है और असामान्य कोशिका को मरने के लिए प्रोत्साहित करता है। युनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स कैंसर सेंटर के डायरेक्टर दारियो एलटिरी का कहना है कि इस दवा के परिणाम बहुत दिलचस्प हैं क्योंकि इसमें माइट्रोकॉण्ड्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका सामने आई है और स्पष्ट हुआ है कि इसे कैंसर के इलाज में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। पता नहीं कि इस दिशा में आगे क्या कदम उठाए गए हैं। (रुाोत फीचर्स)

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

What is Karma?

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 Karma is the Sanskrit word for action. One can think of karma as the spiritual equivalent of Newton’s Law of Motion. “For every action there is an equal but opposite reaction.” Basically, when we exhibit a negative force in thought, word, or action, that negative energy will come back to us. However, karma is not meant to be a punishment. It is present for the sake of education. How else is someone to learn how to be a good person if they are never taught that harmful action is wrong. A person only suffers if they have created the conditions for suffering.

The Great Law

"As you sow, so shall you reap". This is also known as the "Law of Cause and Effect". - If what we want is Happiness, Peace, Love, Friendship... Then we should BE Happy, Peaceful, Loving and a True Friend.

The Law of Creation

Life doesn't just HAPPEN, it requires our participation. - We are one with the Universe, both inside and out. - Be yourself, and surround yourself with what you want to have present in your Life.

The Law of Humility

One must accept something in order to change it. If all one sees is an enemy or a negative character trait, then they are not and cannot be focused on a higher level of existence.

The Law of Growth

“Wherever you go, there you are.” It is we who must change and not the people, places or things around us if we want to grow spiritually. When we change who and what we are within our hearts, our lives follow suit and change too.

The Law of Responsibility

-Whenever there is something wrong in my life, there is something wrong in me. - We mirror what surrounds us - and what surrounds us mirrors us; this is a Universal Truth. - We must take responsibility what is in our life.

The Law of Connection

The smallest or seemingly least important of things must be done because everything in the Universe is connected. Each step leads to the next step, and so forth and so on. Someone must do the initial work to get a job done. Neither the first step nor the last are of greater significance. They are both needed to accomplish the task.

The Law of Focus

One cannot think of two things at the same time. If our focus is on Spiritual Values, it is not possible for us to have lower thoughts like greed or anger.

The Law of Giving and Hospitality

If one believes something to be true, then sometime in their life they will be called upon to demonstrate that truth. Here is where one puts what they claim to have learned into practice.

The Law of Here and Now

One cannot be in the here and now if they are looking backward to examine what was or forward to worry about the future. Old thoughts, old patterns of behavior, and old dreams prevent us from having new ones.

The Law of Change

History repeats itself until we learn the lessons that we need to change our path.

The Law of Patience and Reward

All Rewards require initial toil. Rewards of lasting value require patient and persistent toil. True joy comes from doing what one is supposed to be doing, and knowing that the reward will come in its own time.

The Law of Significance and Inspiration

One gets back from something whatever they put into it. The true value of something is a direct result of the energy and intent that is put into it. Every personal contribution is also a contribution to the Whole. Karma is a lifestyle that promotes positive thinking and actions. It also employs self-reflection to fix the problems in one’s life.
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सोमवार, 14 दिसंबर 2015

लाला जगदलपुरी जयंती 17 दिसम्बर को

"बस्तर के महाकवि", "साहित्य ऋषि" और "अक्षरादित्य" आदि नामों से जाने जाने वाले प्रणम्य साहित्यकार लाला जगदलपुरी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को याद करने के लिये 17 दिसम्बर 2015 को कोंडागाँव में "लाला जगदलपुरी जयंती" आयोजित करने का निर्णय "लाला जगदलपुरी जयंती आयोजन समिति" कोंडागाँव द्वारा लिया गया है। 
स्मरण रहे कि 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे और लम्बी अस्वस्थता के बाद 93 वर्ष की आयु में 14 अगस्त 2013 की संध्या 07.00 बजे प्रयाण कर गये लाला जगदलपुरी जी ने साहित्य के माध्यम से बस्तर की अप्रतिम सेवा की। हिन्दी के साथ-साथ हल्बी, भतरी एवं छत्तीसगढ़ी में भी कविता, गीत, मुक्तक, नाटक, एकांकी, निबंध आदि साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर 1936 से सृजन आरम्भ करने वाले लालाजी ने अपने अन्तिम समय से कुछ ही दिनों पहले अपनी अस्वस्थता के कारण लेखन-कर्म छोड़ दिया था। उनकी पुस्तक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" ने उन्हें पूरे देश में चर्चित कर दिया था। यह पुस्तक "मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी", भोपाल से प्रकाशित हुई थी और इसकी इतनी माँग थी कि प्रकाशक को इसके कई-कई संस्करण प्रकाशित करने पड़े। आज यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है जबकि माँग जस-की-तस बनी हुई है। इसी माँग को देखते हुए शीघ्र ही इसका नया संस्करण राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। उनकी अन्तिम पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ सम्पादित) 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई। यह पुस्तक भी पूरे देश में चर्चित हुई और आज भी हो रही है। इसके भी अब तक दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें अन्यानेक सम्मानों के साथ ही छत्तीसगढ़ राज्य के सर्वोच्च राजकीय साहित्य सम्मान "पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य/आंचलिक साहित्य अलंकरण" से 2005 में विभूषित किया गया था। 
इस आयोजन में लालाजी के सम्पर्क में रहे किन्तु अब बस्तर से बाहर रह रहे कई ख्यातनाम साहित्यकार  शिरकत करेंगे।

(हरिहर वैष्णव)
संयोजक
लाला जगदलपुरी जयंती आयोजन समिति
कोंडागाँव

सोमवार, 30 नवंबर 2015

बुरा समय, जानें कैसे करें समाधान

हर रात के बाद सवेरा होता है तो लोग क्यों नहीं मानते कि ‘अंधेरे के बाद उजाला भी होता है’। यानी कि एक बुरे दिन के बाद एक अच्छा समय भी आपके इंतजार में बैठा ही होगा। परन्तु अक्सर लोग यह समझ नहीं पाते और हमेशा ही उदासी के अंधकार में डूबे रहते हैं।
बुरा दिन किसी विशेष व्यक्ति को चुनकर उसके पास नहीं आता। यह किसी के साथ भी हो सकता है। मेरे या आपके साथ भी। बुरा दिन वह नहीं जो एक बड़े स्तर पर आपकी ज़िंदगी बदलकर रख दे, बल्कि बुरा दिन वह भी है जो आपको धीरे-धीरे उदास करता जाए।
लेकिन उससे बाहर कैसे निकलना है यह आपको जानना चाहिए। फर्ज कीजिए कि आज आप सुबह बिल्कुल समय पर उठ गए। पहला अलार्म बजते ही आपकी नींद खुल गई और आपने सोचा कि बस एक मिनट में उठ जाएंगे लेकिन फिर सो गए।
इसके बाद आपकी नींद तब खुली जब आपको ऑफिस जाने के लिए घर से निकल जाना चाहिए था। ढेर सारी मशक्कत करके किसी तरह से आप ऑफिस पहुंचे लेकिन देरी से आने पर बॉस की डांट का शिकार हो गए। यह थी दिन की दूसरी बुरी घटना।
अब गुस्से में बॉस ने इतना काम थमा दिया कि पूरा दिन तो क्या शाम तक भी काम खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ऐसे में मन में बार-बार आता है कि ‘आज का तो दिन ही बुरा था’।
इसी परेशान मन से आप घर जाते हैं और घर वालों से भी ढंग से बात नहीं करते। आपके चिड़चिड़े स्वभाव से घर वालों का भी मूड खराब होता है। लेकिन यह तो गलत है ना?
पर जिनका बुरा दिन गुजरता है वह तो किसी की सलाह सुनने को भी राज़ी नहीं होते। जो कोई भी उन्हें राय देने आगे बढ़ता है वह उसी पर ही अपने गुस्से का बाण छोड़ देते हैं। ऐसे में भले ही किसी की राय ना सुनें लेकिन आगे की स्लाइड्स में दिए गए कुछ टिप्स जरूर अपनाएं, यह वाकई आपको तरो-ताज़ा कर देंगे।
यदि किसी दिन आपको बार-बार लगे कि कुछ गलत हो रहा है। सब कुछ आपके विरुद्ध चल रहा है और साथ ही आपको अपनी बुरी किस्मत का आभास हो रहा है तो सबसे पहले तो ऐसा सोचना बंद कर दें। बुरा समय किसी का भी आ सकता है, इसमें कोई नई बात नहीं है।
यदि आप किसी दिन बुरी घटनाओं का शिकार हो रहे हैं, तो संसार में ऐसे अनगिनत लोग हैं जिनके साथ ठीक वैसा ही हो रहा है जो आपके साथ हुआ। उनकी भी इच्छानुसार दिन की सभी घटनाएं क्रमानुसार नहीं हुईं। उन्हें भी किसी के बुरे व्यवहार का सामना करना पड़ा होगा।
तो ऐसे में आप यह सोचकर संतुष्ट हो जाएं कि अकेले आप नहीं हैं जिसके साथ ऐसा हुआ। और अपने दिल को तसल्ली देते हुए आगे बढ़ जाएं और कहें ‘आज का दिन बुरा था तो क्या हुआ, कल फिर अच्छा होगा’।
लेकिन फिर भी कुछ लोग दिन बुरा गुजरने पर उसी के बारे में रात तक सोचते रहते हैं। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो बेहद हताश हो जाते हैं मानो इसके आगे जीवन खत्म ही हो गया है। लेकिन ऐसी भावना से दूर ही रहना चाहिए।
यदि दिन बुरा गुजरा है तो हो सकता है आपकी शाम अच्छी हो। और यदि किन्हीं कारणों से वक्त अच्छा नहीं चल रहा तो यह जरूर समझ लें कि वक्त रुकता नहीं है। अच्छा हो या बुरा, यह गुजर ही जाएगा। तो फिर बुरा दिन आपके पास हमेशा ही डेरा जमाए नहीं बैठा रहेगा।
लेकिन इतने से भी यदि आप संतुष्ट नहीं हो रहे तो बुरे समय में भी सकारात्मक सोच लाने की कोशिश करें। जानें कि यह बुरा समय आपके लिए क्या लाया है। जी नहीं, बुरा समय केवल बुरी बातें नहीं, बल्कि साथ ही एक संदेश भी लाता है।
एक ऐसा संदेश जो विभिन्न अनुभवों से पूरित है। यह एक जीवन संदेश है जो बताता है कि इस बुरे समय से आप क्या-क्या सीख सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप बॉस की डांट के बाद अधिक मात्रा में दिए गए काम का शिकार हो गए हैं तो हताश ना हों, बल्कि उस काम को इतना अच्छे से पूरा करें कि बॉस अपना सारा गुस्सा भूल जाएं।
इससे आपका दिन कुछ अच्छा हो सकता है साथ ही आपको बुरे समय में भी अच्छी परफार्मेंस देने की सीख मिलती है। केवल यही नहीं, हमारा बुरा समय हमें जीवन की एक और सीख देकर जाता है।
यह समय हमें बताता है कि हर किसी का जीवन परफेक्ट नहीं होता। उतार-चढ़ाव तो जीवन की किताब का एक ऐसा हिस्सा है जो उसके पन्नों के बढ़ते रहने की निशानी है। यदि सब कुछ अच्छा ही होगा तो फिर मनुष्य क्या सीखेगा? बुरा समय ही हमें कई सारे पाठ पढ़ाता है।
बुरे समय की एक खासियत यह भी है कि हम उसे नियंत्रित कर सकते हैं। जी हां, ठीक सुना आपने, हम चाहें तो अपने बुरे समय को नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन कैसे, जानें:
क्योंकि किसी चीज़ में छिपी बुराई या अच्छाई हम अपने दिमाग के सहारे ही समझ पाते हैं, फिर अगर हम अपने दिमाग को यह समझा दें कि वक्त उतना भी बुरा नहीं कितना हम समझ रहे हैं तो आधी दिक्कत तो वहीं समाप्त हो जाती है।
जिस दिन आप यह समझ जाएंगे उस दिन आप चुटकियों में अपने बुरे समय को अलविदा कह सकते हैं। क्योंकि बुरे समय को धीरे-धीरे कम करते हुए आप समझ पाएंगे कि अच्छा समय भी आपका इंतजार कर रहा है। वह समय जो आपको जीने की कला सिखाता है, और वह समय जो काफी कम है और उसे जी भरकर जीना जरूरी है।
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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

समुद्र की गहराइयों में जीवन की पड़ताल

शर्मिला पाल
क्या समुद्र मछलियों से भरा है? क्या केकड़ों की आबादी मछलियों पर भारी पड़ती है? क्या समुद्र में रहस्यमयी जल परियां भी रहती हैं ? न जाने ऐसे कितने सवाल हैं जो अब तक समुद्री जीव जगत को लेकर हमारे ज़ेहन में उठते रहे हैं। जल्द ही इन तमाम सवालों का अंत होने वाला है क्योंकि जैव प्रजातियों की गणना करने वाले वैज्ञानिकों ने समुद्री जीवों की गिनती और उनका वर्गीकरण लगभग पूरा कर लिया है। कोई बड़ी अड़चन न हुई तो 2020 के पहले ही वैज्ञानिक यह बताने की स्थिति में होंगे कि समुद्र में कुल कितने जीव और कुल कितनी प्रजातियां हैं। लगभग 95 प्रतिशत प्रजातियों की गणना का काम पूरा हो चुका है और बहुत से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन समुद्री जीवों में मछलियों की संख्या तो बहुत कम है, जबकि दो सदी पहले तक समझा जाता था कि समुद्र मछलियों से ही भरा है। वास्तव में समुद्र में सबसे ज़्यादा प्रजातियां तो केकड़ों, झींगों, क्रे फिश यानी चिंगट और श्रिंप की पाई जाती हैं जो कुल समुद्री जीव-प्रजातियों का 19 फीसदी हैं। मछलियां तो महज 12 फीसदी ही हैं। वैज्ञानिकों ने यह दावा दस साल से ज़्यादा वक्त लगाकर दुनिया के 25 प्रमुख सागरों में रहने वाले जीवों को गिनने के बाद किया है। समुद्री जीव प्रजातियों को गिनने का यह भगीरथ प्रयास लगभग उतनी ही बड़ी परियोजना के ज़रिए संपन्न हुआ है जितनी बड़ी परियोजना के ज़रिए गॉड पार्टिकल को ढूंढा गया था। इस कार्यक्रम में अस्सी देश शामिल हुए। इन देशों के 2700 से ज़्यादा वैज्ञानिक दिन रात जुटे और इस कार्यक्रम पर अब तक करीब 70 करोड़ अमरीकी डॉलर खर्च हो चुके हैं। इस विशाल प्रोजेक्ट के ज़रिए समुद्री जीवन के बारे में ऐसी-ऐसी दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस परियोजना के बाद ही यह सच सामने आया कि दुनिया समुद्री जीव जगत के बारे में कितना कम जानती है। इस अभियान के बाद ही पता चला कि वे समुद्री जीव, जिन्हें हम बहुत पसंद करते हैं या जानते हैं या कहें कि जिनकी चर्चा सर्वाधिक होती है (मसलन व्हेल, सी लायन, सील, सी बर्ड, कछुए और दरियाई घोड़ा आदि) की तादाद समुद्र में ज़्यादा नहीं है। ये तो कुल समुद्री जीवों का महज़ एक फीसदी हैं। इस गणना से एक और हैरत की बात पता चली है कि सभी समुद्री जीव यायावर नहीं होते। स्थलीय जीवों की तरह ही तमाम समुद्री जीव भी अपने एक इलाके में सीमित रहते हैं। यह तो नहीं कह सकते कि वे घर या घोंसला बनाकर रहते हैं, लेकिन इन्हें भी अपने इलाके, उसके पर्यावरण से मोह होता है। समुद्री जीवन की गणना की इस परियोजना के प्रमुख न्यूज़ीलैंड के मार्क कॉस्टेलो के मुताबिक ये प्रजातियां बहुत घरेलू किस्म की हैं। ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अंटार्कटिका और दक्षिण अफ्रीका के वे इलाके, जो अलग-थलग पड़े हैं इन घरेलू प्रजातियों के सबसे पसंदीदा इलाके हैं। एक और दिलचस्प जानकारी यह सामने आई है कि आम तौर पर जितने बड़े प्राणी होते हैं उनकी विविधता उतनी ही कम होती है। इस मामले में मछलियां तुलनात्मक रूप से बड़े आकार की प्राणी हैं इसलिए उनकी प्रजातियों की संख्या छोटे-छोटे जीवों की तुलना में बहुत कम है। मसलन क्रम्पटन या क्रस्ट मोलस्क पर्यावरण समुद्र की गहराइयों में जीवन की पड़ताल शर्मिला पाल 2 दिसंबर से पूर्व प्रकाशित न करें समुद्री जीव जगत - 1 रुाोत विविधता के मामले में मछलियों से  हीं आगे हैं। न्यूज़ीलैंड और अंटार्कटिका में मिलने वाली प्रजातियों में आधी ऐसी हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं मिलतीं। समुद्री जीवों में सबसे सामाजिक प्राणी शायद वाइपरफिश है जो दुनिया के एक चौथाई समुद्रों में पाई जाती है और समुद्री जीवों के लिहाज़ से दुनिया के सबसे बढ़िया सागर ऑस्ट्रेलिया, जापान और चीन के हैं। यहां सबसे ज़्यादा जैव विविधता पाई जाती है। यह भी इसी अध्ययन गणना परियोजना से पता चला है। इन तीनों समुद्री क्षेत्रों में बीस हज़ार से ज़्यादा प्रजातियां हैं। जब यह गणना अंतिम रूप से पूरी हो जाएगी (इसी साल के अंत तक) तब अनुमान है कि हमें दो लाख तीस हज़ार समुद्री जीवों के बारे में विस्तार से पता होगा। डॉ. कॉस्टेलो के मुताबिक वैसे प्रजातियों की संख्या तो दस लाख से ज़्यादा है। इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक दस साल मेहनत करने के बाद हम आज समुद्री जीवन के बारे में पहले से दस गुना ज़्यादा जानते हैं। यह सेंसस हमें समुद्री जीवन की बेहतर समझ देता है कि कौन- कौन-सी प्रजातिवास्तव में कहां रह रही है। इसके आधार पर समुद्री जीवन का प्रबंधन और संरक्षण बेहतर तरीके से किया जा सकता है।( स्रोत फीचर्स)

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

फिल्म इंडस्ट्री के पहले एंटी हीरो अशोक कुमार

बॉलीवुड अभिनेता अशोक कुमार की छवि भले ही एक सदाबहार अभिनेता की रही है लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने एंटी हीरो की भूमिका भी निभाई थी।
पिछली शताब्दी के चालीस के दशक में अभिनेता "ं की छवि परंपरागत अभिनेता की होती थी जो रूमानी और साफ सुथरी भूमिका किया करते थे1अशोक कुमार फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे अभिनेता हुये जिन्होंने अभिनेता "ं  की परंपरागत शैली को तोड़ते हुये फिल्म ..किस्मत ..में ऐंटी हीरो की भूमिका निभाई थी। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सर्वाधिक कामयाब फिल्मों में बांबे टॉकीज की वर्ष 1943 में निर्मित फिल्म ..किस्मत ..में अशोक कुमार ने एंट्री हीरो की भूमिका निभायी थी। इस फिल्म ने कलकत्ता के ..चित्रा ..थियेटर  सिनेमा हॉल में लगातार 196 सप्ताह तक चलने का रिकार्ड बनाया।
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री मे दादा मुनि के नाम से मशहूर कुमुद कुमार गांगुली उर्प अशोक कुमार का जन्म बिहार के भागलपुर शहर में 13 अक्तूबर 1911 को एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार मंे हुआ था। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा खंडवा शहर से पूरी की 1 इसके बाद उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई इलाहाबाद यूनिर्वसिटी से पूरी की जहां उनकी दोस्ती शशाधर मुखर्जी मुखर्जी से हो गयी जो उन्हीं के साथ पढ़ा करते थे ।
 इसके बाद अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुये अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर मुखर्जी से कर दी। वर्ष 1934 मे न्यू थियेटर मे बतौर लैबेरेटिरी असिटेंट काम कर रहे अशोक कुमार को बांबे टॉकीज मे काम कर रहे उनके बहनोई शशधार मुखर्जी ने अपने पास बुला लिया । वर्ष 1936 मे बांबे टॉकीज की फिल्म जीवन नैया के निर्माण के दौरान फिल्म के मुख्य अभिनेता बीमार पड़ गये 1इस विकट परिस्थति मे बांबे टाकीज के मालिक हिंमाशु राय का ध्यान ..अशोक कुमार ..पर गया और उन्होंने अशोक कुमार से फिल्म मे बतौर अभिनेता काम करने की गुजारिश की 1इसके साथ हीं ..जीवन नैया ..से अशोक कुमार का बतौर अभिनेता फिल्मी सफर शुरू हो गया ।
वर्ष 1939 मे प्रदर्शित फिल्म ..कंगन.बंधन और  झूला में अशोक कुमार ने लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फिल्मों मे उनके अभिनय को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया इसके  साथ हीं फिल्मों की कामयाबी के बाद अशोक कुमार बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री मे स्थापित हो गये । वर्ष 1943 हिमांशु राय की मौत के बाद अशोक कुमार बाम्बे टाकीज को छोड़ फिल्मिस्तान स्टूडियों चले गये 1वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले उन्होंने मशाल, जिद्दी और मजबूर जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया ।
पचास के दशक मे बाम्बे टाकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की इसके साथ हीं उन्होंने जूपिटर थियेटर भी खरीदा 1अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहले ..समाज.. का निर्माण किया लेकिन यह फिल्म बाक्स आफिस पर बुरी तरह नकार दी गयी 1इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फिल्म परिणीता का भी निर्माण किया 1लगभग तीन वर्ष के बाद फिल्म निर्माण क्षेत्र मे घाटा होने के कारण उन्होने  अशोक कुमार प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी । वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फिल्म परिणीता के निर्माण के दौरान फिल्म के फिल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन बन हो गयी 1इसके बाद अशोक कुमार ने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया 1लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमलराय के साथ वर्ष 1963 मे प्रदर्शित फिल्म ..बंदिनी.. मे काम किया और यह फिल्म हिन्दी फिल्म इतिहास की क्लासिक फिल्मों मे शुमार की जाती है ।      
अभिनय मे एकरपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिये अशोक कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिका "ं मे पेश किया 1वर्ष 1958 मे प्रदर्शित फिल्म ..चलती का नाम गाड़ी ..मे उनके अभिनय के नये आयाम दर्शको को देखने को मिले 1हास्य से भरपूर इस फिल्म मे अशोक कुमार के अभिनय को देख दर्शक मंत्रमुग्ध हो गये।
 वर्ष 1968 मे प्रदर्शित फिल्म ..आशीर्वाद..मे अपने बेमिसाल अभिनय के लिये वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किये गये 1इस फिल्म मे उनका गाया गाना ..रेल गाड़ी रेल गाड़ी ..बच्चो के बीच काफी लोकप्रिय हुआ ।  इसके बाद वर्ष 1967 मे प्रदर्शित फिल्म .ज्वैलथीफ.. मे उनके अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला 1इस फिल्म मे वह अपने सिने कैरियर मे पहली खलनायक की भूमिका मे दिखाई दिये 1इस फिल्म के जरिये भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया । वर्ष 1984 मे दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप आपेरा.हमलोग.मे वह सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिये और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया 1दूरदर्शन के लियें हीं अशोक कुमार ने भीमभवानी, बहादुर शाह जफर और उजाले की ओर जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया । अशोक कुमार को मिले सम्मान की चर्चा की जाये तो वह दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये है। वर्ष 1988 मे हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के अवार्ड से भी अशोक कुमार सम्मानित किये गये । लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शको के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार 10 दिसंबर 2001 को सदा के लिये अलविदा कह गये ।(वार्ता)

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

धार्मिक परिवारों के बच्चे कम दयालु होते हैं

धार्मिक उपदेशों में सलाह तो यही दी जाती है व्यक्ति को अन्य लोगों से सहानुभूति रखनी चाहिए और सबकी भलाई को अपने स्वार्थ से ऊपर रखना चाहिए। मगर कई देशों के 1170 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि उदारता की बात आती है, तो गैर-धार्मिक बच्चे दूसरों को अपनी चीज़ें देने में ज़्यादा दिलदार साबित होते हैं। इस अध्ययन के मुखिया, शिकैगो वि·ाविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक ज़्यां डेसेटी का कहना है कि उनका यह अध्ययन दर्शाता है कि नैतिकता सम्बंधी विमर्श को धर्म निरपेक्ष बनाने से मानवीय करुणा में कमी नहीं, वृद्धि होती है। डेसेटी व उनके साथियों ने यह अध्ययन कनाडा, चीन, जॉर्डन, टर्की, दक्षिण अफ्रीका और यूएसए में किया था। इसमें 510 मुस्लिम, 280 ईसाई, और 323 गैर-धार्मिक बच्चे शामिल थे। अध्ययन में यह देखने की कोशिश की गई थी कि बच्चे अन्य बच्चों को अपनी चीज़ें देने में कितने उदार हैं। सबसे पहले 5-12 वर्ष उम्र के बच्चों की मुलाकात कुछ वयस्कों से होती है जो उन्हें अपने मनपसंद 10 स्टिकर चुनने को कहते हैं। ये वयस्क बच्चों को बताते हैं कि वास्तव में स्टिकर तो अन्य बच्चों को भी बांटने हैं मगर उनके पास समय नहीं है। इसलिए बच्चों से कहा गया कि वे चाहें तो अपने 10 स्टिकर्स में से कुछ स्टिकर्स अन्य बच्चों के लिए एक लिफाफे में छोड़ दें। जब बच्चे चले गए तो प्रत्येक लिफाफे में रखे स्टिकर्स को गिना गया। शोधकर्ताओं ने माना कि बच्चों ने जितने स्टिकर्स छोड़े हैं वह उनकी उदारता का द्योतक है। गिनती करने पर पता चला कि गैरधार्मिक बच्चों ने औसतन 4.1 स्टिकर्स अन्य बच्चों के लिए छोड़े थे, जबकि ईसाई बच्चों ने 3.3 और मुस्लिम बच्चों ने 3.2 स्टिकर्स ही अन्य बच्चों के लिए छोड़े थे। अध्ययन के दौरान अभिभावकों का सर्वेक्षण भी किया गया। इससे जोड़कर देखने पर पता चला कि परिवार जितना अधिक धार्मिक होता है, बच्चा उतना ही कम उदार होता है। वैसे बच्चे की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मूल देश, उम्र वगैरह से फर्क पड़ता है मगर धार्मिक अंतर सबसे ज़्यादा असर डालते हैं। इसी अध्ययन में बच्चों को एक वीडियो दिखाया गया था जिसमें कोई बच्चा किसी अन्य बच्चे के साथ गलत व्यवहार (जैसे धक्का देना) करता दिखाया जाता है। इसके बाद बच्चों से कहा गया कि वे यह फैसला करें कि वह व्यवहार कितना गलत था और ऐसा व्यवहार करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए। इस अध्ययन के परिणाम दर्शाते हैं कि आम तौर पर धार्मिक बच्चे ऐसे व्यवहार को बहुत गलत मानते हैं और सख्त से सख्त सज़ा दिलवाना चाहते हैं  जबकि गैर-धार्मिक पृष्ठभूमि के बच्चों ने उसी व्यवहार को कम खतरनाक माना। उपरोक्त दोनों परिणामों की व्याख्या आसान नहीं है। मगर इरुााइल के हाइफा वि·ाविद्यालय के मनोवैज्ञानिक बेंजामिन बैट-हल्लाहमी को लगता है कि धार्मिक लोग आम तौर पर मानते हैं कि कोई बाह्र शक्ति है जो दंड देती है। दूसरी ओर, धर्म निरपेक्ष परिवारों के बच्चे नैतिक नियमों का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि ऐसा करना सही है। इसलिए जब बाह्र शक्ति की निगरानी न हो तो अमूमन धर्म निरपेक्ष लोगों का नैतिक व्यवहार कहीं बेहतर होता है। (रुाोत फीचर्स)

सोमवार, 16 नवंबर 2015

गूगल का प्रयोग अब भारत में

गूगल के उस लून प्रोजेक्ट की 7 खास बातें, जो सुदूर इलाकों का कायापलट कर सकता है

आसमान में उड़ते गुब्बारों के जरिये इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाले लून प्रोजेक्ट की सात महत्वपूर्ण बातें:
1- गूगल के ‘प्रोजेक्ट लून’ में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका पोलीथिलीन से बने बड़े-बड़े गुब्बारों की है. इन गुब्बारों में हीलियम गैस भरी होती है तथा इनका आकार 15 मीटर व्यास में फैला होता है.
2- ये गुब्बारे पृथ्वी की सतह से लगभग 20 किलोमीटर ऊपर स्ट्रैटोस्फियर में चक्कर लगाते हैं. इनके जरिये इन्टरनेट सेवा देने का सफल प्रयोग गूगल द्वारा 2013 में न्यूजीलैंड और 2014 में कैलिफोर्निया और ब्राजील में किया जा चुका है.
3- इन गुब्बारों में लगे इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम को लगातार ऊर्जा देने के लिए सोलर पैनल के साथ-साथ हवा से ऊर्जा प्राप्त करने वाले यंत्र भी लगाए हैं. गूगल इन गुब्बारों की दूरी और स्थिति को अपने जमीनी केंद्र से नियंत्रित कर सकता है.
4- गूगल द्वारा भारत में इस प्रोजेक्ट का प्रयोग बीएसएनएल के साथ मिलकर 2.6 गेगा हर्ट्ज़ बैंड के ब्रॉड बैंड स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल से किया जाना है.
5- गूगल के अनुसार इस प्रोजेक्ट में प्रत्येक गुब्बारा वायरलेस तकनीक एलटीई या 4जी के जरिये 40 किलोमीटर के व्यास में इंटरनेट की सुविधा देगा. वह दूरसंचार कंपनियां के स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर हर उस सिस्टम या मोबाइल को तेज इंटरनेट उपलब्ध कराएगा जिसमें 4जी या एलटीई तकनीक की सुविधा है.
6- भारत में प्रोजेक्ट लून के दो सबसे बड़े फायदे हो सकते हैं. एक, इससे भारत के उन गांवों में भी तेज इंटरनेट उपलब्ध होगा जहां अभी ठीक से 3जी की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. दूसरा, इस प्रोजेक्ट से दूरसंचार कंपनियां कम पैसों में इंटरनेट उपलब्ध करा सकेंगी क्योंकि उन्हें टावर लगाने और उन्हें मैनेज करने के खर्च से मुक्ति मिल जायेगी.
7- जहां भारत में अभी इस प्रोजेक्ट को सिर्फ टेस्ट की ही अनुमति मिली है वहीँ पड़ोसी देश श्रीलंका गूगल से इस प्रोजेक्ट के लिए कई महीने पहले करार भी कर चुका है. 1989 में दक्षिण एशिया में सबसे पहले मोबाइल की शुरुआत करने वाला और साल 2013 में सबसे पहले 4-जी सर्विस की शुरुआत करने वाला देश श्रीलंका ही था. (सत्याग्रह)

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

पार्किंसन रोग को सूंघने की क्षमता

एक महिला जॉय मिलने ने जब पार्किंसन सम्बंधी एक सम्मेलन में बताया कि वह पार्किंसन रोग को सूंघ सकती हैं तो किसी ने उस पर वि·ाास नहीं किया। मगर जब बाद में उन्होंने अपनी इस क्षमता का प्रदर्शन किया तो रोग की पहचान की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। मिलने ने सबसे पहले अपने पति के शरीर की गंध में परिवर्तन महसूस किया, जबकि पार्किंसन रोग के लक्षण प्रकट नहीं हुए थे। आगे चलकर उन्होंने एक संस्था में काम करते हुए यह बात अन्य रोगियों के बारे में भी महसूस की। एडिनबरा वि·ाविद्यालय के टाइलो कुनाथ ने मिलने को अपनी प्रयोगशाला में आमंत्रित किया और अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने को कहा। उन्हें 12 टी- शर्ट सूंघने को दिए गए जिनमें से 6 पार्किंसन रोगियों के थे। मिलने ने 12 में से 11 की सही पहचान की। एक मामले में वे गलत साबित हुई - उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को पार्किंसन रोगी बताया जिसे रोग नहीं था। मगर आश्चर्य की बात यह रही कि एक साल के अंदर- अंदर ही उस व्यक्ति में रोग के लक्षण प्रकट हो गए। कुनाथ व उनके साथियों ने पूरे मामले की व्यवस्थित छानबीन शुरू की। मिलने से पूछा गया कि उन्हें यह गंध टी-शर्ट के किस हिस्से में सबसे ज़्यादा महसूस होती है। जब उन्होंने बताया कि गंध का रुाोत शर्ट की कॉलर है, तो शोधकर्ता अचरज में पड़ गए क्योंकि आम तौर पर सबसे ज़्यादा पसीना बगलों में आता है और उन्हें उम्मीद थी कि उसी हिस्से से सबसे ज़्यादा गंध आएगी। मगर जब मिलने ने गर्दन की ओर इशारा किया
तो नए सिरे से खोजबीन शुरू हुई। इसके अलावा एक बात और हुई। मिलने की कहानी प्रसारित होने के बाद
कई और व्यक्तियों ने दावा किया है कि उन्हें पार्किंसन की गंध पहचान में आती है। अब इन लोगों के साथ प्रयोग शुरू किए जाएंगे। गर्दन में से गंध की बात से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि यह गंध पसीना ग्रंथियों से नहीं बल्कि एक अन्य किस्म की ग्रंथियों में से निकल रही है, जिन्हें सेबेशियस ग्रंथियां कहते हैं। अब पार्किंसन रोगियों की सेबेशियस ग्रंथियों के रुााव का विश्लेषण विभिन्न तरीकों से किया जा रहा है ताकि पार्किंसन से सम्बंधित रासायनिक अणुओं की पहचान की जा सके। जब सेबेशियस ग्रंथियों पर बात टिक गई तो शोधकर्ताओं ने पार्किंसन सम्बंधी पुराने शोध पत्रों का अध्ययन फिर से किया। पता चला कि 1920 के दशक
में ही यह देखा गया था कि पार्किंसन रोगियों में सीबम निर्माण की प्रक्रिया में परिवर्तन होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि पार्किंसन रोगियों में त्वचा थोड़ी मोमी हो जाती है। यह बात त्वचा विशेषज्ञों ने रिपोर्ट की थी मगर तंत्रिका वैज्ञानिकों ने इसकी उपेक्षा की थी। अब त्वचा की गंध और पार्किंसन होने की संभावना के बीच सम्बंध उजागर होने के बाद कई विधियों से उन आणविक पहचान चिंहों की खोज की जाएगी जो समय रहते रोग के आसार दर्शा सकें।
एक रोचक बात यह है कि वैज्ञानिक इस काम में खोजी कुत्तों की भी मदद लेने पर विचार कर रहे हैं। फिलहाल
जीव वैज्ञानिक मामलों में कुछ हद तक खोजी कुत्तों का इस्तेमाल हुआ है। जैसे जुड़वां बच्चों के बीच भेद  करने या कतिपय कैंसर और मधुमेह की शिनाख्त के लिए। (रुाोत फीचर्स)

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

पारा प्रदूषण का शिकार - कोडईकानल

प्रदूषण
डॉ. राम प्रताप गुप्ता
तमिलनाड़ु की पालानी पहाड़ियों पर 2133 मीटर की ऊंचाई पर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध हिल स्टेशन कोडईकानल स्थित है। यहीं पर स्थित इसी नाम की झील, यूकेलिप्टस, बबूल, कीकर, डेहलिया आदि के विशाल वृक्ष इस हिल स्टेशन के आकर्षण को और बढ़ा देते हैं। इसकी स्वास्थ्यप्रद जलवायु के कारण पर्यटक यहां आते ही रहते थे। लेकिन यह हिल स्टेशन स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति के माध्यम की जगह अब अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का जनक बन गया है। हिन्दुस्तान यूनीलीवर कंपनी ने अमेरिका के  यार्क प्रांत के वाटर टाउन स्थित अपने थर्मामीटर कारखाने को यहां स्थानांतरित कर दिया था। अमेरिका के वाटर टाउन में स्थित और प्रदूषण फैलाने वाले थर्मामीटर के कारखाने का कोडईकनाल में स्थानांतरण विकसित राष्ट्रों की प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में स्थानांतरण की नीति का ही अंग था। ऐसे स्थानांतरण को वे पिछड़े राष्ट्रों के विकास में योगदान कहते हैं। कोडईकानल के 400 परिवारों के लिए पर्यटन मौसम की समाप्ति के पश्चात रोज़गार के स्थायी रुाोत उपलब्ध ही नहीं थे और वे छुटपुट कार्य कर अपना जीवन बिताते थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि हिन्दुस्तान यूनीलीवर अपना थर्मामीटर बनाने का कारखाना वहां स्थानांतरित कर रहा है जिसमें 400 लोगों को स्थायी और बेहतर आय वाले रोज़गार प्राप्त होंगे, तो वे बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि उनमें से कुछ लोगों को अच्छा रोज़गार प्राप्त हो सकेगा। जब यूनीलीवर का थर्मामीटर बनाने का कारखाना अमेरिका के वाटर टाउन से यहां स्थानांतरित कर दिया गया तो कारखाने में रोज़गार प्राप्ति के कुछ ही दिनों के बाद इसमें कार्यरत श्रमिक अच्छी आय के स्थान पर गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के शिकार होने लगे, उनकी रोज़गार प्राप्ति की सारी खुशी समाप्त हो गई। सन 1986 में कोडईकानल में स्थानांतरित थर्मामीटर के कारखाने में उस समय तक थर्मामीटर बनाए जाते रहे जब तक कि सन 2001 में इसे सरकार द्वारा बंद नहीं कर दिया गया। इस अवधि में इसमें 1100 श्रमिक कार्यरत थे। श्रमिकों का कथन है कि उस समय प्रबंधकों ने न तो पारे के संपर्क से होने वाली नाना प्रकार की गंभीर बीमारियों के बारे में कोई चेतावनी दी और न ही दस्ताने और मुंह पर लगाने के लिएकोई नकाब दिए गए ताकि वे पारे के संपर्क तथा पारे की वाष्प से बच सकें। कारखाने के स्वामियों ने कार्य की समाप्ति पर संपर्क में आए पारे को धोने की कोई व्यवस्था भी नहीं की। उन्हें पहनने के लिए जो कपड़े दिए जाते थे वे भी तीन- चार रोज़ में एक बार ही धुलवाए जाते थे, जबकि उन्हें रोज़ धुलाया जाना चाहिए। यूनीलीवर कोडईकानल में निर्मित थर्मामीटरों को अमेरिका स्थित फैचने मेडिकल कंपनी को भेज देता था जो उन्हें यू.के., कनाड़ा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मन और स्पेन को निर्यात करती थी। कारखाने में लगने वाला पारा और कांच भी अमेरिका से आयात किए जाते थे। इस तरह भारत की न तो कच्चे माल के रुाोत के रूप में और न ही तैयार माल के बाज़ार के रूप में कोई भूमिका थी। शीघ्र ही 18 पूर्व श्रमिक पारे के संपर्क से उत्पन्न बीमारियों के कारण मर गए। अन्य कई आज भी बीमारियों के शिकार हैं। पारे को प्रयुक्त करने वाले कारखाने में बरती जाने वाली सावधानियों की उपेक्षाओं का परिणाम यह हुआ कि मज़दूर तीन-चार वर्ष के पश्चात गंभीर बीमारियों का शिकार होने लगे। उदाहरण के लिए एक महिला हेलन मारगरेट ने सन 1996 से 1999 तक कारखाने में कार्य किया। शीघ्र ही वह अनेक गंभीर रोगों का शिकार हो गई। सन 2000 में जन्मा उनका दूसरा पुत्र मानसिक दृष्टि से अत्यंत कमज़ोर था। वह मानसिक दृष्टि से कमज़ोर बच्चों के लिए चर्च द्वारा स्थापित विद्यालय में पढ़ता था और मारगरेट को दिन में 3-4 बार जाकर बच्चे को संभालना पड़ता था। यह सब थर्मामीटर फैक्टरी में कार्य करने के दौरान पारे के संपर्क का परिणाम था, इस बात का उस समय तो उसे पता ही नहीं था। एक अन्य महिला संगीता बताती है कि उसके पिता गोविन्दम फैक्ट्री में संविदा चौकीदार थे। कार्य के दौरान उन्हें फैक्ट्री के चारों और 3-4 बार चक्कर लगाने पड़ते थे और वे फेंके गए पारे और कांच के संपर्क में आते थे। परिणामस्वरूप उनके शरीर में हीमोग्लोबीन की अत्यंत कमी हो गई और सन 2000 में उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। पारे के कारखाने में कार्य के दौरान श्रमिकों के पारे से संपर्क के कारण उत्पन्न गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के लिए हिन्दुस्तान यूनीलीवर को कोई क्षतिपूर्ति और जुर्माना न देना पड़े, इस हेतु उसने अपने स्तर पर कई अध्ययन कराए और बताने की कोशिश की कि कोडईकानल के कारखाने के श्रमिकों और वहां के निवासियों की स्वास्थ्य की समस्याओं का थर्मामीटर के कारखाने से कोई सम्बंध नहीं है। सन 2006 में अपने द्वारा कराए गए अध्ययन के निष्कर्षों को इंडियन जर्नल ऑफ ऑक्यूपेशनल एण्ड एनवायरमेंटल हेल्थ में प्रकाशित कराया, जिसमें बताया गया था कि पूर्व के नियमित और संविदा 255 श्रमिक स्वास्थ्य सम्बंधित अनेक समस्याओं के शिकार तो थे, परन्तु इन समस्याओं का थर्मामीटर कारखाने में कार्य से कोई सम्बंध नहीं है। परन्तु जिन 255 श्रमिकों के स्वास्थ्य की जांच का दावा किया गया, उनका कथन है कि उनसे किसी ने इस बारे में कभी कोई बात ही नहीं की थी। हिन्दुस्तान यूनीलीवर कंपनी ने दिल्ली स्थित ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ और इंडस्ट्रियल टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च सेंटर से भी प्रमाण- पत्र प्राप्त कर लिए कि कोडईकानल के श्रमिकों और अन्य की स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का थर्मामीटर के कारखाने से कोई स्पष्ट सम्बंध नहीं है। इन प्रमाण पत्रों के बावजूद पारे के प्रदूषण के शिकार कोडईकानल के निवासियों को सन 2001 में यह पता चला कि थर्मामीटर का बंद कारखाना कचरे को वहां के एक गड्ढे में फेंक रहा है। यह कचरा बोरों में पैक कर फेंका गया था जिनसे पारा रिस रिस कर वहां की भूमि पर फैल रहा था। कुछ कचरा कंपनी के आधिपत्य वाले शोला के वन में फेंका गया था। इसके बाद कारखाने के 400 श्रमिकों ने फैक्ट्री के दरवाज़े पर क्षतिपूर्ति हेतु आंदोलन किया। यह आंदोलन आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। थर्मामीटर के कारखाने से  से पारे और पारे की वाष्प के कारण कोडईकानलऔर आसपास के क्षेत्र में फैले प्रदूषण के बारे में परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि 25 एकड़ में फैली कोडईकानल झील का पानी प्रदूषित हो गया है। उसके पानी में 7.9 माइक्रोग्राम से लेकर 8.3 माइक्रोग्राम प्रति किलो पारा पाया गया है जो सुरक्षित मात्रा से कई गुना अधिक था। कोडाईकनाल झील की मछलियों में 120 से लेकर 210 माइक्रोग्राम पारा पाया गया। जिसके कारण लोगों के लिए इनके खाने लायक नहीं रह जाने के कारण मछुआरों का व्यवसाय भी समाप्त हो गया। थर्मामीटर बनाने के कारखाने के आसपास की भूमि में पारे की मात्रा सुरक्षित मात्रा से 250 गुना अधिक पाई गई। आसपास की भूमि में पारे की मात्रा 1.32 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर थी जबकि सुरक्षित मात्रा 0.5-1 नैनोग्राम प्रति घन मीटर होती है। यह मात्रा सुरक्षित से 132 गुना से लेकर 264 गुना अधिक थी। कंपनी ने लोगों के बढ़ते दबाव के कारण कारखाने के आसपास पारे को हटाने के लिए कुछ कदम तो उठाए थे, परन्तु व्यापक पर्यावरणीय प्रभावों को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया। थर्मामीटर कारखाने के अंकेक्षण से पता चलता है कि उसने 1.2 टन पारा पैराम्बूर के शोला वन के क्षेत्र में छोड़ा था। पर्यावरण के लिए संघर्षरत नित्यानंद जयरमण, जिन्होंने फैक्ट्री में कार्य किया था, का कथन है कि यह कारखाना पर्यावरण उपनिवेशवाद का सशक्त उदाहरण है। थर्मामीटर के कारखाने से फैला प्रदूषण कोडईकानल तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि सैकड़ों कि.मी. दूर तक के स्थान भी उसके शिकार हो गए। कोडईकानल की पहाड़ियों से बहने वाला वर्षा का पानी अपने साथ पारे को दूरस्थ अंचलों तक ले गया और 130 कि.मी. दूर स्थित मदुराई का पानी भी पारे से प्रदूषित पाया गया। कोडाईकनाल की पारे से प्रदूषित पहाड़ियों से बहने वाले वर्षा के पानी के साथ प्रदूषित पारा बहकर जाना ही था और नीचे स्थित ग्रामों, शहरों, कस्बों के निवासियों को कोडईकानल् प्रभावित होना ही था। परन्तु यूनीलीवर अपने द्वारा फैलाए गए पारे के प्रदूषण का दायित्व स्वीकार करने को आज भी तैयार नहीं है। सन 2015 में पारे के कारखाने के पूर्व मज़दूरों और कर्मियों ने प्रदर्शन कर कंपनी द्वारा फैलाए गए पारा- जनित बीमारियों और स्वास्थ्य को पहुंची क्षति के बदले क्षतिपूर्ति की मांग की। उनकी यह भी मांग थी कि यूनीलीवर अपने कारखाने के फैले कचरे को साफ करे और उसकी समुचित देखरेख की व्यवस्था भी करे। सन 2007 में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति के द्वारा श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पारे के प्रदूषण के पर्याप्त सबूत नहीं पाए गए, इससे यूनीलीवर जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की सरकारों और व्यवस्था पर प्रभाव का अंदाज़ा लग सकता है। यूनीलीवर द्वारा कोडईकानल में फैलाए गए प्रदूषण के पर्याप्त सबूतों और पूर्व श्रमिकों और उनकी संतानों के स्वास्थ्य पर पड़े प्रतिकूल प्रभावों के तमाम प्रमाणों की अनदेखी कर यूनीलीवर का कथन है कि अब तक उसका इतिहास सस्टेनेबल विकास का रहा है और भविष्य में भी रहेगा। यूनीलीवर द्वारा कोडईकानल में थर्मामीटर के कारखाने का स्थानांतरण विकसित राष्ट्रों की उस साजिश का परिणाम है जिसके अंतर्गत पर्यावरण और स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले उद्योगों को तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में स्थानांतरित कर दिया जाता है। जब हमारी वर्तमान सरकार अमेरिका और युरोप के पूंजीपतियों को भारत में निवेश करने, अधिक मुनाफा कमाने देने की बात करती है तो उसे इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कहीं विदेशी कंपनियों द्वारा यहां स्थापित कारखाने यहां के पर्यावरण के विनाश के माध्यम न बन जाएं। यूनीलीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भ्रम फैलाने वाली घोषणाओं के पीछे की वास्तविकताओं के प्रति हमें सावधान रहना ही होगा। (रुाोत फीचर्स)

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

मां के चरित्र को निरूपा राय ने दिया नया आयाम

हिन्दी सिनेमा में निरूपा रॉय को ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपने किरदारों से मां के चरित्र को नया आयाम दिया।
निरूपा राय मूल नाम कोकिला का जन्म 4 जनवरी 1931 को गुजरात के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ। उनके पिता रेलवे में काम करते थे। उन्होंने चैथी तक  शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल राय से हो गया। शादी के बाद निरूपा राय मुंबई आ गयी। उन्हीं दिनो निर्माता -निर्देशक बी.एम.व्यास ने अपनी नई फिल्म रनकदेवी के लिये नये चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फिल्म में कलाकारों की आवश्यकता के लिये अखबार में विज्ञापन निकाला। कमल राय अपनी पत्नी को लेकर बी.एम.व्यास से मिलने गये और अभिनेता बनने की पेशकश की लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता के लायक नहीं है लेकिन यदि वह चाहे तो उनकी पत्नी को फिल्म में अभिनेत्री के रूप में काम मिल सकता है। फिल्म रनकदेवी में निरूपा राय 150 रूपये माह पर काम करने लगी लेकिन बाद में उन्हें इस फिल्म से अलग कर दिया गया।
निरूपा राय ने अपने सिने करियर की शुरूआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फिल्म गणसुंदरी से की। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म हमारी मंजिल से उन्होंने हिंदी फिल्म की  "र भी रूख कर लिया।  " पी दत्ता के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई। उसी वर्ष उन्हें जयराज के साथ फिल्म गरीबी में काम करने का अवसर मिला। इन फिल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गयी।
वर्ष 1951 में निरूपा राय की एक और महत्वपूर्ण फिल्म 'हर हर महादेव' प्रदर्शित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने देवी पार्वती की भूमिका निभाई। फिल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गयी। इसी दौरान उन्होंने फिल्म वीर भीमसेन में द्रौपदी का किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया।  पचास और साठ के दशक में निरूपा राय ने जिन फिल्मों में काम किया उनमें अधिकतर फिल्मों की कहानी धार्मिक और भक्तिभावना से परिपूर्ण थी। हालांकि वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म सिंदबाद द सेलर में उन्होंने नकारात्मक चरित्र भी निभाया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म दो बीघा जमीन उनके करियर के लिये मील का पत्थर साबित हुयी। विमल राय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दी। फिल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिये उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुयी।
वर्ष 1955 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी फिल्म 'मुनीम जी' निरूपा राय की अहम फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म में उन्होंने देवानंद की मां की भूमिका निभाई। फिल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिये वह सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गयी लेकिन इसके बाद छह वर्ष तक उन्होंने मां की भूमिका स्वीकार नहीं की।
 वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म छाया में उन्होंने एक बार फिर  मां की भूमिका निभाई। इसमें वह आशा पारेख की मां बनी। फिल्म में उनके जबरदस्त अभिनय को देखते हुये उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म दीवार निरूपा राय के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधत्व करने वाले शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के मां की भूमिका निभाई। फिल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से मां के चरित्र को जीवंत कर दिया। निरूपा राय के सिने करियर पर नजर डालने पर पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की मां के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही है। उन्होंने सर्वप्रथम फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। इसके बाद खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, अमर अकबर एंथनी, सुहाग, इंकलाब, गिरफ्तार, मर्द  और गंगा जमुना सरस्वती जैसी फिल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। वर्ष 1999 में प्रदर्शित फिल्म 'लाल बादशाह' में वह आखिरी बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। उन्होंने अपने पांच दशक के लंबे करियर में लगभग 300 फिल्मों में अभिनय किया। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुगध करने वाली निरूपा राय 13 अक्टूबर 2004 को इस दुनिया को अलविदा कह गयी।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

एक दिन बस्तर के नाम

बस्तर की हल्बी लोक भाषा की दो पुस्तकों का लोकार्पण, फिर हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति पर केन्द्रित संगोष्ठी ने "हल्बी-हल्बी" की धूम मचा दी। 
पहली पुस्तक है, बस्तर की वाचिक परम्परा की अमूल्य धरोहर "लछमी जगार" का एक भिन्न रूप, जिसका (26,261 गीत पंक्तियों का) गायन बस्तर जिले के खोरखोसा गाँव की गुरुमायँ केलमनी और जयमनी द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इसके हिन्दी गद्यानुवाद (हरिहर वैष्णव) तथा दूसरी पुस्तक हल्बी के अन्यतम कवि सोनसिंह पुजारी जी की हल्बीकविताओं के संग्रह "अन्धकार का देश" (अनुवाद : हरिहर वैष्णव) का प्रकाशन-लोकार्पण आज 30 अक्टूबर 2015 को बस्तर विश्वविद्यालय, धरमपुरा, जगदलपुर, बस्तर-छ.ग. में "साहित्य अकादेमी" नयी दिल्ली के सचिव श्री के. श्रीनिवासराव, "साहित्य अकादेमी" के अन्तर्गत गठित "जनजातीय एवं वाचिक साहित्य केन्द्र" नयी दिल्ली की निदेशक प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. अन्विता अब्बी, बस्तर विश्वविश्वद्यालय के कुलपति श्री एन.डी.आर.चन्द्र, हल्बी के सुप्रसिद्ध कवि एवं बस्तर के तुलसीदास नाम से ख्यात श्री रामसिंह ठाकुर तथा नगर के प्रबुद्ध नागरिकों, साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों एवं छात्र-छात्राओं की गरिमामयी उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। 
इस अवसर पर निम्न वक्ताओं द्वारा अपने आलेख पठन किये गये :
 
यशवंत गौतम/ हल्बी का लिखित साहित्य : दशा एवं दिशा
विक्रम सोनी/ हल्बी का भाषा वैज्ञानिक पक्ष एवं लिपि
शिवकुमार पाण्डेय/हल्बी और छत्तीसगढ़ी में अंतर्संबंध
बलदेव पात्र/हल्बी और हल्बा संस्कृति
खेम वैष्णव/हल्बी परिवेश में लोक चित्र-परम्परा
सुभाष पाण्डेय/हल्बी रंगमंच : कल, आज और कल
बलबीर सिंह कच्छ/हल्बी लोक संगीत की दशा एवं दिशा
नारायण सिंह बघेल/हल्बी परिवेश के लोक नृत्य
रुद्रनारायण पाणिग्रही/हल्बी परिवेश के त्यौहार एवं उत्सव
रूपेन्द्र कवि/मानव विज्ञान की दृष्टि में हल्बा जनजाति
इसके साथ ही, एम. ए. रहीम एवं शोभाराम नाग द्वारा हल्बी कहानियों का पाठ किया गया। 
अब कल का दिन पद्य को समर्पित होगा, जिसमें हल्बी काव्य-पाठ, लछमी जगार का गायन, गीति कथा का गायन, खेल गीत का गायन और लोक नृत्य का प्रदर्शन सम्मिलित होंगे। 
इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम का सम्पन्न होना कतई संभव नहीं था यदि प्रो. अन्विता अब्बी जी का अथक प्रयास न होता और साहित्य अकादेमी का भरपूर सहयोग और बस्तर विश्वविद्यालय के कुलपति के साथ-साथ उनके सहयोगियों का भी। इस आयोजन की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है एक युवा शोध छात्र। लखनऊ विश्वविद्यालय के अजय कुमार सिंह। अजय ही वे व्यक्ति हैं जिन्होंने बस्तर की लोक भाषाओं, विशेषत: हल्बी के विषय में प्रो. अब्बी जी को जानकारी दी और फिर उसके बाद अब्बी जी सक्रिय हो गयीं। और इस तरह यह कार्यक्रम अपने अंजाम तक पहुँच सका। इसके लिये हम बस्तरवासी चिरंजीव अजय, प्रो. अब्बी जी, साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव, अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और बस्तर विश्वविद्यालय के कुलपति एन.डी.आर.चन्द्र के आभारी हैं।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

अनोखा कांटेक्ट लैंस

टेक-चैट : कांटेक्ट लेंस जो किसी भी दृश्य को 'जूम इन' और 'जूम आउट' कर सकता है

आविष्कार : एक कांटेक्ट लेंस जो किसी भी दृश्य को बड़ा या छोटा कर सकता है
कैसा लगेगा जब कोई कहे कि आंख में लगा एक कान्टेक्ट लेंस ही अब दूरबीन का काम करने लगा है? अविश्वसनीय? लेकिन अब यह सच होने जा रहा है. अमेरिका के कुछ शोधकर्ताओं ने एक ऐसा कांटेक्ट लेंस बना लिया है जिससे ‘ज़ूम इन’ और ‘ज़ूम आउट’ यानी किसी दृश्य को बड़ा या छोटा किया जा सकता है. इसे बनाने वालों का दावा है कि यह लेंस किसी भी दृश्य को तीन गुना तक ज़ूम कर सकता है और यह दूर और पास दोनों तरह की कमजोर नजर से पीड़ित लोगों के लिए एक वरदान साबित होगा. कई परीक्षणों के बाद इसे कैलिफोर्निया के अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ़ साइंस के सामने रखा गया है.
टेक-चैटइस लेंस को आंखों में लगाने के बाद यदि केवल दाईं पलक झपकाई जाए तो सामने का दृश्य कई गुना बड़ा होकर दिखने लगता है. इसी तरह बाईं पलक झपकाने पर यह छोटा हो जाता है और सामने का दृश्य फिर से सामान्य दिखने लगता है. दरअसल इस लेंस की डेढ़ मिलीमीटर मोटाई में ही एलुमिनियम की एक शीशेनुमा परत भी है. यही इस लेंस को ‘ज़ूम इन’ और ‘ज़ूम आउट’ करने में मदद करती है. ‘आंख मारने’ के अंदाज़ में एक पलक झपकाने पर लेंस में लगी इस परत को एक निर्देश चला जाता है. इससे यह परत और इसके जरिये पूरा लेंस कुछ इस तरह से व्यवस्थित हो जाते है कि दृश्य बड़ा या छोटा होकर दिखने लगता है.
इस लेंस को आंखों में लगाने के बाद यदि केवल दाईं पलक झपकाई जाए तो सामने का दृश्य कई गुना बड़ा होकर दिखने लगता है. इसी तरह बाईं पलक झपकाने पर यह छोटा हो जाता है
इस लेंस को सबसे पहले अमेरिका के रक्षा विभाग की रिसर्च टीम ने अपने ड्रोन कैमरों के लिए बनाया था. लेकिन बाद में उन्हें इस लेंस से मैकुलर डीजनरेशन नामक आंखों की बीमारी के इलाज की तरकीब सूझी. इस बीमारी में आंखों के रोशनी ग्रहण करने की क्षमता कमजोर हो जाती है और पीड़ितों को धुंधला दिखायी देने लगता है. अक्सर यह बीमारी बुजुर्गों में ही पायी जाती है.
इस लेंस को बनाने वाले ऑप्टिकल इंजीनियर एरिक ट्रेम्बले के अनुसार अभी यह लेंस थोडा भारी है. लेकिन उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही वे इसे और हल्का बना देंगे और फिर यह बाज़ार में आ जाएगा.

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

टेक-चैट : वाई-फाई कूड़ेदान

अजब-गजब : कूड़ेदान जो आपको पूरी दुनिया से जोड़ने की क्षमता रखता है
स्वच्छ भारत अभियान से इतर दो भारतीय युवाओं ने गंदगी से निजात दिलाने की एक अनूठी तरकीब खोज निकाली है. इस तरकीब से एक ओर सफाई होती है तो दूसरी ओर लोगों को मुफ्त वाई-फाई का लाभ भी मिलता है. मुम्बई में रहने वाले पंकज अग्रवाल और राज देसाई ने मिलकर एक ऐसा कूड़ेदान बनाया है जो स्वयं ही लोगों को कूड़ेदान के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करता है. दरअसल, इस कूड़ेदान को इस तरह से बनाया गया है कि जब भी कोई व्यक्ति इसमें कूड़ा डालता है तो इसके ऊपर लगी स्क्रीन पर एक कोड लिखा आता है. यह कोड ही उस इलाके में लगे वाई-फाई का पासवर्ड होता है जिसे मोबाइल या लैपटॉप में डालते ही मुफ्त वाई-फाई की सुविधा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है.
टेक-चैटपंकज और राज दोनों स्वप्रशिक्षित प्रोग्रामर हैं. पंकज अग्रवाल बताते हैं कि नीदरलैंड और सिंगापुर की सामाजिक संरचना देखकर उन्हें लगा कि भारत में सफाई को लेकर लोगों की सोच को बदलने कि जरूरत है. उनके साथी राज देसाई के अनुसार वाई-फाई वाले कूड़ेदान का विचार उन्हें कुछ बड़े म्यूजिक फेस्ट में जाने के बाद आया. वे बताते हैं कि रात भर चलने वाले ये कार्यक्रम अक्सर शहरों से दूर होते हैं. यहां मोबाइल नेटवर्क और इन्टरनेट सुविधाएं न होने के कारण लोगों को काफी तकलीफ होती है. ऐसी जगहों पर खाने-पीने के बाद होने वाली गंदगी भी एक बड़ी समस्या होती है. ऐसे में इन दो युवाओं ने एक ऐसा प्रयोग करने की ठानी जो गंदगी मिटाने के साथ ही संपर्क साधनों की कमी भी पूरी कर सके. इसके बाद ही इन्होने वाई-फाई ट्रैश बिन इजाद किया.
दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता के कई कार्यक्रमों में इन कूड़ेदानों का सफल उपयोग हो चुका है. इन कार्यक्रमों में यह भी देखा गया है कि लोग वाई-फाई के लिए अपना कचरा न होने पर किसी दूसरे के द्वारा की गई गंदगी को भी ढूंढ़-ढूंढ़कर कूड़ेदान में डाल रहे थे. शुरुआत में अपने पैसों से ही काम करने वाले इन युवाओं को अब मोबाइल नेटवर्क कंपनी एमटीएस की भी मदद मिल रही है. पंकज बताते है कि उनकी पहल अब सभी को सफाई के लिए प्रेरित कर रही है और साथ ही तकनीक से जुडी कई कंपनियां भी उनकी इस मुहीम में दिलचस्पी दिखा रही हैं.

कार के बिना एक दिन

बिना कारों के एक दिन हमारा ध्यान शहरी स्वास्थ्य और पर्यावरण की ओर खींचता है। पेरिस में पिछले किसी रविवार के दिन शहर को कारों से निजात मिली। इसके लिए अधिकारियों ने सिटी सेंटर के लगभग 25 प्रतिशत भाग को वाहनों के लिए बंद कर दिया और उसके आसपास के क्षेत्र में भी वाहनों की गति सीमा को 20 किलोमीटर कर दिया। कारों के बिना यह दिन पेरिस में 30 नवंबर से शुरू होने वाले राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (क्ग्र्घ्21) की मेज़बानी की तैयारी के रूप में किया गया था। विदेश मंत्रालय और सम्मेलन के अध्यक्ष लॉरेंट फेबियस के अनुसार इस सम्मेलन के आयोजन का उद्देश्य यह है कि “वैश्विक स्तर पर सहमति बने कि हमारे ग्रह का पर्यावरण हम सब के लिए स्वस्थ बना रहे।” इस क्ग्र्घ्21 सम्मेलन का प्राथमिक फोकस तो वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना है, मगर कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जो अन्य स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तत्काल मिल सकते हैं उनकी तरफ ध्यान दिलाना भी इस सम्मेलन के उद्देश्यों में है। लैन्सेट आयोग द्वारा हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार यदि बिजली और यातायात के क्षेत्र में कार्बन का उपयोग कम किया जाए तो हवा को साफ रखने में मदद मिलेगी जिससे सामुदायिक स्वास्थ बेहतर होगा। ऊर्जा उपयोग की कई तकनीकें, जैसे डीज़ल और पेट्रोल कारें, कोल पावर प्लांट और खाना पकाने में बायोमास (जैसे, लकड़ी और चारकोल) का उपयोग हवा में तरह-तरह के प्रदूषक पदार्थ छोड़ते हैं। इस तरह के प्रदूषण से हृदय, फेफड़ों और श्वसन से सम्बधित बीमारियां बढ़ जाती हैं। यदि हम साफ ऊर्जा तकनीकों की ओर बढ़ते हैं तो हम अपने आप स्वास्थ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकते हैं और अरबों डॉलर बचा सकते हैं। दूसरे शहरों की तरह ही पेरिस भी उच्च स्तर के वायु प्रदूषण का सामना कर रहा है। 2014 में स्थानीय प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक था जिसके चलते वहां की सरकार ने सार्वजनिक परिवहन की फीस को अस्थाई रूप से हटा दिया था और सड़कों पर कारों को आंशिक रूप से प्रतिबंधित कर दिया था। इस कदम की वजह से वहां ट्रॉफिक 18 प्रतिशत कम हुआ और वायु प्रदूषण के स्तर में 6-30 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई। (स्रोत फीचर्स)

बुधवार, 30 सितंबर 2015

फोक्सवैगन घोटाला: क्या किया जा सकता है?

फोक्सवैगन कार कंपनी पर आरोप यह है कि उसने अपनी कारों से निकलने वाले धुएं (उत्सर्जन) की जांच के साथ छेड़छाड़ की। उन्होंने अपनी कारों के इंजिनों में एक सॉफ्टवेयर फिट किया। जब उत्सर्जन की जांच का समय आता था तो यह सॉफ्टवेयर इंजिनों की सेटिंग को कुछ समय के लिए बदल देता था। तो ये कारें उत्सर्जन की जांच में सफल हो जाती थीं। मगर सड़क पर पहुंचते ही ये एक बार फिर 35 गुना ज़्यादा नाइट्रोजन ऑक्साइड उगलने लगती थीं। कार निर्माता के मुताबिक दुनिया भर में 1.1 करोड़ कारों में इस तरह का सॉफ्टवेयर फिट किया गया है। यह तो हुई जानबूझकर की गई धोखाधड़ी की बात। मगर एक बात यह पता चली है कि आम तौर पर सड़कों पर कारों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा प्रयोगशाला जांच के दौरान निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से 7 गुना ज़्यादा होती है। प्रयोगशाला जांच में कार को एक ट्रेडमिल पर निर्धारित पैटर्न में दौड़ाया जाता है। यह भी देखा गया है कि अन्य प्रदूषक (कणीय पदार्थ और कार्बन डाईऑक्साइड) भी वास्तविक ड्राइविंग के दौरान ज़्यादा निकलते हैं। इसीलिए युरोपीय संघ में 2017 से वास्तविक स्थिति में जांच की व्यवस्था लागू की जा रही है। खास तौर से नाइट्रोजन ऑक्साइड पर नज़र रखना ज़रूरी है क्योंकि ये सांस सम्बंधी रोगों और ह्मदय रोगों के लिए ज़िम्मेदार पाए गए हैं। ऐसी वास्तविक स्थिति में की जाने वाली जांच कोई नई बात नहीं है। इससे पहले यूएस में भारी वाहनों के  मामले में इसी तरह की धोखाधड़ी की घटनाएं प्रकाश में आई थीं और तब यूएस की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने भारी वाहन निर्माताओं पर मुकदमा चलाया था। तब से सड़क चलते वाहनों के उत्सर्जन की जांच लागू की गई थी। इसमें कुछ वाहनों में पोर्टेबल उपकरणों की मदद से वास्तविक परिस्थिति में जांच की जाती है। इस तरह की जांच को लेकर वाहननि र्माता बहुत खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि वास्तविक उत्सर्जन कई बातों पर निर्भर करता है - जैसे वाहन कितनी खड़ी चढ़ाई पर है, ड्राइवर कितनी तेज़ी से गाड़ी की स्पीड बढ़ाता है वगैरह। इन समस्याओं से निपटने के लिए युरोपीय संघ में जो जांच व्यवस्था लागू की जा रही है, उसमें एक निर्धारित ड्राइविंग पैटर्न का पालन किया जाएगा। इस व्यवस्था को कारों पर लागू करने में दिक्कत यह है कि पोर्टेबल जांच उपकरण काफी बड़ा है और उसे कारों में फिट नहीं किया जा सकता। अभी यह देखना बाकी है कि क्या सिर्फ फोक्सवैगन ने ही धोखाधड़ी की है या अन्य कार निर्माता भी ऐसा करते रहे हैं। और मुख्य चुनौती यह है कि जांच की प्रयोगशाला परिस्थिति से आगे बढ़कर वास्तविक उत्सर्जन की जांच कैसे की जाए ताकि स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को कम से कम किया जा सके।
एक भारतीय जिसने फॉक्सवैगन का झूठ पकड़कर उसे 41 अरब डॉलर की चोट लगा दी
अमेरिका में रह रहे भारतीयों की प्रखर बुद्धि का सभी लोहा मानते हैं. अब तक वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ऊपर उठाने के लिए ही जाने जाते थे. अब नीचे गिराने के लिए भी जाने जाएंगे. जर्मनी की फॉक्सवैगन इसी साल जापान की टोयोटा को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी बनी थी. इसी साल उसकी सबसे ज्यादा मिट्टीपलीद भी हो रही है. उसका नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है. यही वह दिन है, जब फॉक्सवैगन से कहा गया कि वह अमेरिका में चल रही अपनी करीब पांच लाख डीज़ल कारों को तुरंत वापस बुलाए. अमेरिका की पर्यावरण रक्षा एजेंसी ‘ईपीए’ का कहना था कि इन कारों में चकमा देने वाला एक ऐसा सॉफ्टवेयर लगा है, जो पल भर में जान जाता है कि मोटर से निकलने वाले धुंए की कब प्रदूषण-जांच हो रही है और कब कार सड़क पर सरपट दौड़ रही है. प्रदूषण जांच के समय इन कारों से निकलने वाले धुंए में जितनी नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा मिलती है, सड़क पर दौड़ते हुए वह उससे 35 गुना तक अधिक पाई गई है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कहीं न कहीं कोई हेराफेरी हो रही हो.
  फॉक्सवैगन का नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है.
‘ईपीए’ का ध्यान इस धोखाधड़ी की तरफ इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन (आईसीसीटी) नाम की एक ग़ैर-सरकारी और ग़ैर-लाभकारी संस्था ने खींचा था. दो दर्जन परिवहन व पर्यावरण विशेषज्ञों वाली इस संस्था के सदस्य़ यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान और भारत जैसे देशों के इंजीनियर, वैज्ञानिक और अकादमिक शोधकर्ता होते हैं. यही देश परिवहन साधनों के प्रमुख बाज़ार भी हैं.
भांडाफोड़ कैसे हुआ?
आईसीसीटी ने ही अमेरिका में पहली बार ऐसी डीज़ल कारों से होने वाले वायु प्रदूषण का अध्ययन करवाने का फ़ैसला किया, जो यूरोप में बनी हैं. 50 हज़ार डॉलर अनुदान वाले इस अध्ययन के लिए वेस्ट वर्जीनिया यूनिवर्सिटी की एक टीम को चुना गया. यह टीम दो प्रोफ़ेसरों, एक सहायक प्रोफ़ेसर और दो छात्रों से मिलकर बनी थी. सहायक प्रोफ़ेसर थे भारत में जन्मे और पढ़े डॉ. अरविंद तिरुवेंगड़म. दो छात्रों में भी एक भारत के हेमंत कप्पान्ना थे. डॉ. तिरुवेंगड़म 2013 से वेस्ट वर्जीनिया यूनीवर्सिटी के बेंजामिन एम स्टैटलर कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
 (रुाोत फीचर्स)