गुरुवार, 22 मई 2014

गिरीश पंकज की कविता

सुख से कट्टी रही हमारी
दुःख से लेकिन पक्की यारी

सुख सपने में आ कर ठगते
दुःख आये पर बारी-बारी

हमको तकलीफों ने पाला
हम तो हैं इनके आभारी

झुकना सीख नहीं पाये हम
नहीं आ सकी अपनी पारी

जो सच्चे थे साथ रहे वे
झूठे सब हो गए सरकारी

कविता अपने लिए साधना
उनको लगती है तरकारी

हम भी यहाँ सफल हो जाते
बस आती थोड़ी मक्कारी

बेचारा वो पिछड़ गया है
क्यों पाला तेवर खुद्दारी

तिल-तिल ही जोड़ा है पंकज
यहां नहीं है माल उधारी

गिरीश पंकज, रायपुर

शनिवार, 10 मई 2014

पिता पर दो कविताऍं

मैंने उन्हें जब भी देखा,
सरोवर-सा शांत देखा
मुश्किलों में भी वे
कभी उदास नहीं होते
खामोश कविता से लगते
सर पर प्यार भरा हाथ ही
हमें देता है हौसला
उनके साथ रहने से मिलती है ऊज्र
रोज चरणस्पर्श प्रणाम पर
आशीषों की सागर लहराया
पिता को याद करते हुए
भर आईं हैं आँखें
पिता होते हैं बरगद की छाँव
संघर्ष की तेज धूप का आश्रय
इस सत्य से अलग न होना
क्योंकि
पुत्र भी एक दिन
पिता बन कर
इसी सत्य को जिएगा

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बचपन में देखा है कई बार
जब भाई को घर आने में
हो जाती थी देर
काली रात में
पिता पैरों से नापते थे
समय की दूरी
माथे पर उभर आती थी
कुछ लकीरें
आक्रोश रहता था
चेहरे पर
जो बंद मुट्ठी में
कभी -कभी कैद हो जाता था
भाई के आते ही
ये सारी चीजें उड़ जाती थी
कपूर की तरह
और काँपते होंठों पर रहता था
केवल एक प्रश्न -
तू ठीक तो है ना ?
आज बुजुर्ग पिता लाचार है
बदलती जीवनशैली में
कुछ बोल नहीं सकते
पर बेटे से मुलाकात होते ही
अब भी आँखों में तैरता है प्रश्न
तू ठीक तो है ना ?