शनिवार, 16 नवंबर 2013

पेड-न्यूज बनाम बिकी हुई खबर

मनोज कुमार
पत्रकारिता अपने आरंभ से ही आरोपों से घिरी रही है. पत्रकारिता पर यह आरोप उसके कार्यों को लेकर नहीं बल्कि पत्रकारिता की सक्रियता से जख्मी होते लोग आरोप लगाते रहे हैं. पत्रकारिता पर जैसे-जैसे आरोप तेज होता गया, पत्रकारिता उतनी ही धारदार होती गयी. किसी समय में पत्रकारिता पर पीत पत्रकारिता का आरोप लगता था. पीत पत्रकारिता अर्थात पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर किसी के खिलाफ अथवा पक्ष में लिखा जाना. अंग्रेजी में इसे यलो जर्नलिज्म कहा गया. समय गुजरने के साथ पीत पत्रकारिता अथवा यलो जर्नलिज्म का अस्तित्व ही समाप्त हो गया लेकिन लगभग दो दशक पहले पत्रकारिता के समक्ष पेडन्यूज नाम एक नया आरोप सामने आया. देहात से दिल्ली तक सबकी जुबान पर पेडन्यूज नामक का एक कथित जुर्म पत्रकारिता के साथ चिपका दिया गया. पेडन्यूज क्या है, जब यह किसी से पूछा जाये तो शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो इसका सही और सटीक जवाब दे सके. पेडन्यूज अंग्रेजी का शब्द है और मैं एक पत्रकार होने के नाते इस शब्द का हिन्दी अर्थ तलाश करने में लग गया. किसी ने कहा कि पेडन्यूज का अर्थ बिकाऊ खबर है तो किसी ने इसे बिकी हुई खबर कहा लेकिन इन दोनों से पेडन्यूज का अर्थ स्पष्ट होता नहीं दिखता है.
पत्रकारिता में पनप रहे पेडन्यूज नाम की बीमारी का इलाज कराने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही है. हर कोई पत्रकारिता की इस बीमारी को दूर कर देना चाहता है लेकिन यह बीमारी सबको भा रही है. बहरहाल, पेडन्यूज के बारे में मैंने जितना जाना-समझा, उसके आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता के लिये पेडन्यूज बना ही नहीं है. अंग्रेजी का शब्द है और अंग्रेजी जर्नलिज्म के लिये ही यह मुफीद है क्योंकि हिन्दी पत्रकारिता के लिये यह होता तो पहले की तरह हिन्दी में पीत पत्रकारिता जैसा कोई नाम मिल गया होता. खैर, अंग्रेजी का ही जुमला सही लेकिन सच है कि समूची पत्रकारिता इस आरोप से घिरी हुई है. एक और बात साथियों से चर्चा में आयी कि न्यूज से किसी का महिमामंडन या छीछालेदर नहीं किया जा सकता है अत: पेडन्यूज जैसा कोई फ्रेम उचित नहीं है. समाचार ताजा स्थिति की सूचना का प्रारंभिक चरण होता है अत: यहां वह गुंजाईश नहीं होती है कि समाचार को बेचा जा सके.अपितु समाचार विश£ेषण, टिप्पणी, सम्पादकीय अथवा लेख के माध्यम से किसी का महिमामंडन या छीछालेदर करना सहज होता है.

इस समय जिन पांच राज्यों में चुनाव प्रक्रिया शबाब पर है, वहां पेडन्यूज पर नियंत्रण पाने के लिये चुनाव आयोग ने पहरा बिठा दिया है. कुछ राज्यों में चुनाव आयोग तक शिकायतें पहुंच चुकी हैं और शायद यह क्रम जारी रहेगा. सवाल यह है कि पेडन्यूज की परख कैसे हो? इम्पेक्ट फीचर और एडवाटोरियल को क्या पेडन्यूज की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा? इससे भी एक अहम सवाल यह है कि क्या पेडन्यूज पर नियंत्रण चुनाव की बेला में ही होगा इसके बाद कोई रोक नहीं होगी? पेडन्यूज क्या पत्रकारिता के उद्देश्यों को प्रभावित नहीं करती? सवाल अनेक हैं और पेडन्यूज पर नियंत्रण की कोशिशें एक निश्चित समय-सीमा के लिये नहीं बल्कि हमेशा के लिये होना चाहिये. मीडिया समाज का दर्पण है और दर्पण ही दागदार हो जाये तो चेहरा साफ कैसे दिखेगा. मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर है और यह विश्वसनीयता तभी वापस आ सकती है जब पेडन्यूज जैसी बीमारी से मीडिया को मुक्त किया जा सके.
पेडन्यूज को एक बड़े विस्तार के रूप में ओपिनियन पोल को देखा जा सकता है. एक राय है कि यह चुनावी सर्वे किसी शोध का नहीं बल्कि शो का नतीजा होता है. लगभग 90 के दशक के आसपास से श्ुारू हुआ चुनावी सर्वे पहले पहल तो लोगों को लुभाने लगा लेकिन इस सर्वे की विश्वसनीयता कभी नहीं रही. लाखों मतदाताओं के बीच से सौ-पचास लोगों की राय पर परिणाम किसी भी हालत में विश्वसनीय तो हो ही नहीं सकता. बाद के सालों में सर्वे करने वालों की तादात बढ़ती गयी और पेड-सर्वे की गंध आने लगी. पेडन्यूज की तरह पेड सर्वे भी मीडिया में महामारी की तरह पनप रही है और इस पर रोक लगाना चाहिये ताकि कल कोई ना कहे बिकाऊ मीडिया या बिकी हुई...
मनोज कुमार

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

मीडिया में आत्महत्या

मनोज कुमार
भोपाल में हाल ही में पत्रकार राजेन्द्र राजपूत ने तंत्र से तंग आकर आत्महत्या कर ली। ऐसा करने वाले राजपूत अकेले नहीं हैं। मीडिया वाले अनेक वेबसाइट पर जांचा तो देखा कि हर प्रदेश में एक राजेन्द्र राजपूत हैं। कुछेक राजेन्द्र के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं तो कुछेक अभी मुसीबत से घिरे हुये हैं। यह आश्चर्यजनक ही नहीं, दुखद है कि जिन लोगांे ने समाज को जगाने और न्याय दिलाने की शपथ लेकर फकीरी का रास्ता चुना है, आज उन्हें मरने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। सरकार गला फाड़-फाड़ कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दे रही है और पत्रकार एक के बाद एक जान देने के लिये मजबूर हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का यही सिला है तो पराधीन भारत ही ठीक था जहां गोरे जुल्म करते थे लेकिन शिकायत तो यह नहीं थी कि अपने लोग ऐसा कर रहे हैं। स्वाधीन भारत में पत्रकारों का यह हाल देखकर यह सोचना लाजिमी हो गया है कि आने वाले दिनों में पत्रकार नहीं, प्रोफेशनल्स ही मिलंेगे। और ऐसी स्थिति में पत्रकार मिले भी क्यों? क्यों वह समाजसेवा भी करे और बदले में जान भी गंवाये। एक प्रोफेशनल्स के सामने कोई जवाबदारी नहीं होती है। वह टका लेता है और टके के भाव काम कर खुद को अलग कर लेता है। तंत्र को उससे कोई शिकायत नहीं होती है और वह तंत्र से पूरा लाभ लेता है।
पत्रकारों की इस ताजा स्थिति की जानकारी प्रखर वक्ता और केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्री मनीष तिवारीजी को भी होगी। उनकी तरफ से या मंत्रालय की तरफ से अब तक पत्रकारों की सुरक्षा के लिये अथवा दोषियों पर कार्यवाही के लिये कोई संदेश नहीं आया है। इस सवाल पर शायद जवाब होगा कि यह मामला राज्यों का है और राज्य शासन के मामले में हस्तक्षेप करने का हक केन्द्र को नहीं है। इन स्थितियों में ऐसे ही जवाब की उम्मीद की जा सकती है। खैर, सरकारें तो अपनी तरह से ही काम करती हैं। शिकायत तो उस समाज से है जिसके लिये पत्रकार जूझते और मरते हैं। हाल ही में प्राकृतिक आपदा फैलिन के समय जब लोग टेलीविजन को निहार रहे थे, सूचना पाने के लिये आतुर थे तब पत्रकार ही ऐसा शख्स था जो अपनी जान की परवाह किये बिना जन-जन तक सूचना दे रहा था। उनकी कुशलता के लिये आगाह और सजग कर रहा था। आज उसी पत्रकार की मौत पर समाज खामोश है। उसे इस बात की चिंता नहीं है कि सीमा पर सेना और समाज में पत्रकार ही उसके रक्षक हैं और रक्षक जब हताशा के पायदान पर पहुंच जाये तो आगे की स्थिति समझ लेना चाहिये।
पत्रकार जब अपना दायित्व करते हुये मौत के मुंह में समा जाते हैं तो वह शहीद होने के बराबर होता है। जिस तरह सीमा पर दुश्मनों से दो-दो हाथ करते हुये सैनिक शहीद हो जाते हैं तो हमारा सीना गर्व से फूल जाता है और जब पत्रकार शहीद हो जाता है तो कम से कम पत्रकार बिरादरी का सीना गर्व से फूल जाता है। दुख इस बात का है कि पत्रकार शहीद नहीं हो रहे हैं बल्कि उन्हें मरने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह एक जागरूक समाज के लिये मामूली सवाल नहीं है बल्कि तंत्र को सजग बनाये रखने वाले समाज के प्रहरी जब खतरे में हो तो आवाज हर तरफ से उठना चाहिये कि आखिर ऐसा क्यों। मुझे विश्वास है कि पत्रकारांे को मरने के लिये समाज यूं ही नहीं छोड़ेगा बल्कि उनकी भी खैर-खबर लेगा जो इसके लिये दोषी हैं। समाज का चैथास्तंभ इस समय खतरे में है और चैथास्तंभ ही ढहने लगा तो समूचा लोकतांत्रिक ताना-बाना ध्वस्त हो जाएगा। खतरे की शुरूआत में ही रोक लिया जाये तो बेहतर।