शनिवार, 29 जून 2013

डॉ- इंदिरा परमार का निधन

पहले
अंतिम दिनों में 
 छत्‍तीसगढ़ के ख्‍यातनाम साहित्‍यकार नारायण लाल परमार की धर्मपत्‍नी डॉ इंदिरा परमार का गत 18 जून को धमतरी में निधन हो गया। वे कुछ दिनों से बीमार थीं। वे 71 वर्ष की थीं। उनका जन्‍म 14 नवम्‍बर 1942 को हुआ था, 1960 में उनका विवाह साहित्‍यकार नारायण लाल परमार से हुआ था।  मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने ने उनके शोक संतप्त परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए कहा है कि स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा परमार छत्तीसगढ़ की उन वरिष्ठ महिला साहित्यकारों में से थीं, जिन्होंने अपनी लेखनी से मानवता के कल्याण के लिए मानवीय संवेदनाओं को शब्द और स्वर देकर लम्बे समय तक समाज को अपनी सेवाएं दी। उनके पति स्वर्गीय श्री नारायणलाल परमार भी छत्तीसगढ़ सहित देश के हिन्दी जगत के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में श्रीमती परमार की रचनाओं के प्रकाशन से छत्तीसगढ़ को भी देश भर में साहित्य के क्षेत्र में एक नई पहचान मिली। वे पत्रकार निकष परमार, इंजीनियर निमेष परमार की माता थीं।समस्‍त ब्‍लॉगर बंधुओं की ओर से उन्‍हें भावभीनी श्रद्धांजलि ।

गुरुवार, 27 जून 2013

पंकज सुबीर को यूके का अंतरराष्‍ट्रीय कथा सम्‍मान


पंकज सुबीर का व्‍यक्तित्‍व
पंकज सुबीर का नाम देश के युवा कथा‍कारों की सूची में शामिल है, अभी कुछ दिनों पहले ही भारतीय ज्ञानपीठ ने उनको उनके उपन्‍यास के लिये ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्‍कार देने की घोषणा की है । पंकज सुबीर इंटरनेट पर ग़जल़ गुरु के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्‍योंकि वे ग़ज़ल के व्‍याकरण पर अपना ब्‍लाग चलाते हैं । उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा वर्ष 2010 का नवलेखन पुरस्कार । कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी वर्ष 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरुस्कार हेतु अनुशंसित । कथादेश अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में कहानी शायद जोशी को साँत्वना पुरस्कार । इंडिया टुडे ने मध्यप्रदेश के युवा साहित्यकारों पर केन्द्रित विशेष आलेख में प्रमुख स्थान दिया । वर्ष 2009 में कहानी महुआ घटवारिन विशेष रूप से चर्चा में आई तथा हंस, आधारशिला एवं नया ज्ञानोदय ने इस कहानी को लेकर आलेख तथा कहानी का प्रकाशन हुआ । वर्ष 2010 में नया ज्ञानोदय के युवा विशेषांक में प्रकाशित कहानी चौथमल मास्साब और पूस की रात को काफी सराहना मिली । कहानियाँ, व्यंग्य लेख एवं कविताएँ नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, हँस, परिकथा, सुंखनवर, सेतु, वागर्थ, कथाक्रम, कथादेश, समर लोक, संवेद वाराणसी, जज्बात, आधारशिला, समर शेष है, जैसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। इसके अलावा समाचार पत्रों के सहित्यिक पृष्ठों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दैनिक भास्कर, नव भारत, नई दुनिया आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र शामिल हैं । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर स्मृति न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित शोध ग्रंथों 'समर शेष है 2007' तथा 'हुंकार हूं मैं 2008 ' में 'संस्कृति के चार अध्याय' पर शोध पत्र प्रकाशित । भारतीय भाषा परिषद ने लगातार दो वर्षों तक (2005 एवं 2006) युवा कथाकारों के विशेषांक में शामिल किया तथा देश के प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ ने वर्ष 2007 की युवा लेखकों के विशेषांक में स्थान दिया । हँस में प्रकाशित कहानी और कहानी मरती है ..... के लिये प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित । वर्ष 2003 में सुकवि पंडित जनार्दन शर्मा पुरुस्कार प्राप्त हुआ । जल रोको आयोजन के तहत पत्रिका संकल्प के संपादन पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा विशेष पुरुस्कार दिया गया । कहानियों 'घेराव' तथा 'राम जाने' का तेलगू तथा ऑंसरिंग मशीन का पंजाबी में अनुवाद । कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कार्य । इंटरनेट पर बंगाल के व्याकरण को लेकर विशेष कार्य अपने ब्लाग के माध्यम से । जहां पर बंगाल का व्याकरण (अरूब) सीखने वालों को उसकी जानकारी उपलब्ध करवाते हैं । इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर विशेष रूप से कार्यरत । सीहोर के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से विज्ञान में स्नातक उपाधि तथा रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि बरकत उल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा प्राप्त की । उसके पश्चात पत्रकारिता से लगाव होने के चलते दैनिक जागरण, सांध्य दैनिक प्रदेश टाइम्स, सहारा समय जैसे समाचार पत्रों तथा चैनलों के लिये पत्रकारिता की । उसी दौरान पत्रकारिता के कड़वे अनुभवों के कारण इंटरनेट पर आधारित अपनी स्वयं की समाचार सेवा सुबीर संवाद सेवा प्रारंभ की । इंटरनेट पर आधारित ये एजेंसीं आज कई सारे समाचार पत्रों तथा चैनलों को समाचार प्रदान करने का कार्य करती है । फ्रीलांस पत्रकारिता के दौरान आजतक, स्टार न्यूज तथा एनडीटीवी जैसे चैनलों के लिये कई समाचारों पर कार्य किया । 2000 में स्वयं के कम्प्यूटर प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की । वर्तमान में फ्रीलांस पत्रकारिता के साथ साथ कम्प्यूटर हार्डवेयर, नेटवर्किंग तथा ग्राफिक्स प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं ।

मंगलवार, 25 जून 2013

वैज्ञानिकों ने किया कृत्रिम कान का विकास

 वैज्ञानिकों ने जैव अभियांत्रिकी की मदद से कृत्रिम कान का विकास किया है और यह विकास उन लोगों के लिए वरदान साबित होगा जो दुर्घटनाओं में अपने कान खो देते हैं अथवा जिनके कान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने थ्रीडी ¨प्र¨टग और इंजेक्टेबल मोल्ड के इस्तेमाल से एक ऐसे जैव अभियांत्रिक कृत्रिम कान का विकास किया है जो प्राकृतिक कान की तरह ही दिखता और काम करता है। जैव इंजीनियरों और चिकित्सकों के द्वारा बनाए गए इस कृत्रिम कान ने मिक्रोटिया नामक जन्मजात विकृति के साथ पैदा हुए हजारों बच्चों के लिए उम्मीद की किरण पैदा की है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में. कर्नेल बायोमेडिकल इंजीनियर और वेल कर्नेल मेडिकल कालेज के चिकित्सकों ने बताया है कि 3.डी ¨प्र¨टग और इंजेक्टेबल जेल की मदद से जीवित कोशिकाओं से फैशनबल कान का किस प्रकार विकास किया गया जो व्यावहारिक रूप से एक मानव कान के समान है। वैज्ञानिकों के अनुसार तीन महीने की अवधि के दौरान. ये लचीले कान कोलेजन को हटाने के लिए काíटलेज का विकास करने लगते हैं जिसका इस्तेमाल उन्हें मोल्ड करने के लिए किया जाता है।
इस शोध में शामिल जैव चिकित्सा के एसोसिएट प्रोफेसर और रिकंस्ट्रक्टिव सर्जन लॉरेंस बोनासर ने कहा कि यह दवा और बुनियादी विज्ञान दोनों के लिए एक उपलब्धि है। उनके अनुसार यह कान की विकृति के साथ पैदा हुए बच्चों के लिए एक उचित समाधन हो सकता है। अमरीका के बायोजेनेरेटिव मेडिसीन एंड सर्जरी के प्रयोगशला के निदेशक और न्यूयार्क सिटी में विल कार्नेल में घ्लास्टिक सर्जरी के सहायक प्रोफेसर डॉ. जैसन स्पेक्टर कहते हैं कि इस जैव अभियांत्रक कान को किसी दुर्घटना या कैंसर के कारण कान के कुछ हिस्सों या कान के पूरे बाहरी हिस्से को खो चुके लोगों में प्रतिस्थापित किया जा सकता है। अभी प्रतिस्थापित किए जाने वाले कान का निर्माण आम तौर पर ऐसे पदार्थो से किया जाता है जिनमें स्टायरोफोम की तरह स्थिरता हो. या कभी.कभी. सर्जन रोगी के रिब को काटकर कान का निर्माण करते हैं। यह विकल्प चुनौतीपूर्ण और बच्चों के लिए दर्दनाक है और यह कान शयद ही कभी पूरी तरह से प्राकृतिक लग पाता है या अच्छी तरह से काम करता है। कान बनाने के लिए प्रो.बोनासर और सहयोगियों ने कृत्रिम कान बनाने का काम मानव कान के 3.डी छवि के साथ शुरू किया और मोल्ड को जोडने के लिए 3 डी ¨पट्रर के इस्तेमाल से इमेज को डिजिटाइज्ड सॉलिड कान में परिवíतत किया। कर्नेल द्वारा विकसित यह उच्च घनत्व वाला जेल मोल्ड को हटाने पर जेल.ओ की स्थिरता के समान हो जाता है। कोलेजन विकसित हुए काíटलेज पर एक स्काफोल्ड की तरह कार्य करता है। यह प्रक्रिया बहुत तेजी से होती है।
र्पो. बोनासर के अनुसार द्धद्धमोल्ड को डिजाइन करने में आधे दिन का समय लगता है, इसे प्रिंट करने में लगभग एक दिन लगता है, जेल को इंजेक्ट करने में आध घंटा लगता है और हम इसके 15 मिनट बाद कान को निकाल सकते हैं। इसे प्रत्यारोपित करने से पहले हम कान की छटाई कर सेल कल्चर मीडिया में इसे कुछ दिनों के लिए कल्चर करते हैं।द्धद्ध मिक्रोटिया की घटना तब होती है जब बाहरी कान पूरी तरह से विकसित नहीं होता है। यह घटना हर सार्ल पति 10 हजार बच्चों में करीब एक से 4 बच्चों कर्ो पभावित करती है। मिक्रोटिया के साथ पैदा हुए कई बच्चों में कान को अंदरूनी हिस्सा तो सामान्य होता है लेकिन कान के बाहरी हिस्से के न होने के कारण उनके सुनने की क्षमता में कमी आ जाती है। स्पेक्टर के अनुसार रोगी के शरीर की कोशिकाओं के इस्तेमाल के कारण इसके अस्वीकृत होने की संभावना बहुत कम होगी। उनके अनुसार बच्चों में जैव अभियांत्रिक कान कर्ो पत्यारोपित करने का सबसे अच्छा समय तब होता है जब वह 5 या 6 वर्ष का होता है। इस र्उम में कान वयस्क कान का लगभग द्धर्0 पतिशत विकास कर चुका होता है। यदि भविष्य में यह कान सुरक्षा र्औ पभाव के मामले में खरा उतरता है तो तीन साल के अंदर ही इस कान का मानव में पहलर्ा पत्यारोपण करना संभव हो जाएगा।
प्रो. बोनासर के अनुसार  मोल्ड को डिजाइन करने में आधे दिन का समय लगता है. इसे ¨पट्र करने में लगभग एक दिन लगता है. जेल को इंजेक्ट करने में आधा घंटा लगता है और हम इसके 15 मिनट बाद कान को निकाल सकते हैं। इसे प्रत्यारोपित करने से पहले हम कान की छटाई कर सेल कल्चर मीडिया में इसे कुछ दिनों के लिए कल्चर करते हैं।  मिक्रोटिया की घटना तब होती है जब बाहरी कान पूरी तरह से विकसित नहीं होता है। यह घटना हर साल प्रति 10 हजार बच्चों में करीब एक से 4 बच्चों को प्रभावित करती है। मिक्रोटिया के साथ पैदा हुए कई बच्चों में कान को अंदरुनी हिस्सा तो सामान्य होता है, लेकिन कान के बाहरी हिस्से के न होने के कारण उनके सुनने की क्षमता में कमी आ जाती है। स्पेक्टर के अनुसार रोगी के शरीर की कोशिकाओं के इस्तेमाल के कारण इसके अस्वीकृत होने की संभावना बहुत कम होगी। उनके अनुसार बच्चों में जैव अभियांत्रिक कान को प्रत्यारोपित करने का सबसे अच्छा समय तब होता है जब वह 5 या 6 वर्ष का होता है। इस उम्र में कान वयस्क कान का लगभग 80 प्रतिशत विकास कर चुका होता है। यदि भविष्य में यह कान सुरक्षा और प्रभाव के मामले में खरा उतरता है तो तीन साल के अंदर ही इस कान का मानव में पहला प्रत्यारोपण करना संभव हो जाएगा।

बुधवार, 19 जून 2013

ईश्वर की पाती हमारे नाम..

मेरे प्रिय पुत्र,
आज सुबह जब पंछियों का मधुर संगीत तुम्हारे कानों में पड़ा, ठंडी हवा के झोकों ने तुम्हारी पलकों को चूमा और सूरज की रेशमी किरणों ने तुम्हारे गालों को थपथपाया तो तुमने नींद से नाता तोड़ते हुए आँखे खोली और सजग होकर पूरी स्फूर्ति के साथ बिस्तर से उठ खड़े हुए। तब मैंने प्यार भरी नजरों से तुम्हें देखा और सोचा कि तुम मुझसे बात करोगे। मेरे बारे में कुछ शब्द ही सही तुम अवश्य अपने होठों पर लाओगे। या तो बीते दिन के लिए मुझे धन्यवाद दोगे या शुरू होने वाले दिन के लिए मुझसे कुछ अवश्य चाहोगे लेकिन तुम चुपचाप अपने कपड़ों का चयन करते हुए दिनचर्या की शुरुआत करने में लगे रहे।
तुम तैयार होने के लिए एक कमरे से दूसरे कमरे में दौड़ते-भागते रहे। मुझे आशा थी कि इस भाग-दौड़ के बाद तुम्हारे पास कुछ तो समय अवश्य बचेगा, जब तुम मुझसे बात करने के लिए रुकोगे, लेकिन तुम अपने काम में ही व्यस्त रहे। इस बीच एक समय ऐसा भी आया, जब तुम्हें थोड़ी देर के लिए फुरसत मिली। तुमने अपने पंद्रह मिनट ऐसे ही गुजार दिए और फिर तुम फोन पर अपने मित्र से बातें करने लग गए और मैं तुम्हारी बात-चीत खत्म होने की प्रतीक्षा में समय गुजारता रहा..
दोपहर के समय मैंने ध्यान दिया कि तुमने भोजन करने से पूर्व चारों तरफ देखा.. तुम्हारे आसपास के लोग प्रार्थना करते हुए मेरे सामने सिर झुकाए हुए थे। तुम्हें शायद मुझसे बात करने में संकोच अनुभव हो रहा था, इसलिए तुमने अपना सिर नहीं झुकाया। हाँ, लोगों के झुके हुए सिर और बुदबुदाते होठों के साथ तुम्हारे चेहरे पर आते-जाते संकोच और पश्चाताप के भावों को देखकर ये विश्वास गहरा हो गया था कि अभी भी बहुत समय है, तुम मुझसे अवश्य बात करोगे।
शाम होते ही तुम घर पहुँचे। कुछ देर बाद ही तुमने अपने आपको मनोरंजन की दुनिया में कैद कर लिया। तुम टीवी और कम्प्यूटर में उलझकर रह गए। मैं बड़े धर्य के साथ तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा.. यहाँ तक कि तुम रात्रि का भोजन भी कर चुके और अपनों को शुभरात्रि कहते हुए बिस्तर पर आ गए। मैंने सोचा.. तुम बहुत थक गए हो शायद सोने से पहले.. लेकिन तुमने बिस्तर पर लेटते ही सुबह नींद से तोड़ा रिश्ता वापस जोड़ लिया। तुम शायद नहीं जानते, तुम्हारे इस व्यवहार से मैं जरा भी दुखी नहीं हुआ क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम, तुम सोच भी नहीं सकते मैं उतना धर्यवान हूंँ।
मेरे प्यारे पुत्र, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ.. इसीलिए हर रोज तुम्हारी प्रार्थना और तुम्हारे विचारों की प्रतीक्षा करता हूँ। इस तरह एकतरफा बातचीत करते रहना बहुत ही मुश्किल है, लेकिन कोई बात नहीं.. जब तक तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है, मैं यूँ ही तुमसे बात करता रहूँगा। तुम अब सुबह फिर से उठ रहे हो.. मैं फिर से नई सुबह के साथ तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा..तुम्हारी प्यार भरी प्रार्थना और बातचीत के लिए.. इस आशा और विश्वास के साथ कि तुम अपना कुछ समय तो मुझे दोगे ही।
तुम्हारे जीवन का हर क्षण अच्छा बीते।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
तुम्हारी एक आवाज की प्रतीक्षा में..
तुम्हारा ईश्वर।

मंगलवार, 18 जून 2013

पद्मा खन्ना फिर रूपहले पर्दे पर आने को तैयार

उन्नीस सौ सत्तर के दशक में हिन्दी और भोजपुरी फिल्म जगत की मशहूर अभिनेत्री तथा सुप्रसिद्ध टेलीविजन धारावाहिक रामायण में कैकेयी का किरदार निभाने वाली पद्मा खन्ना आज कल अमेरिका के न्यू जर्सी में एक डांस स्कूल चला रही है और बालीवुड में वापसी की इच्छा रखती हैं। यहां एक स्थानीय अखबार से बातचीत में पद्मा खन्ना ने बताया कि वह न्यू जर्सी में एक डांस स्कूल इंडियनिका डांस एकेडमी का संचालन कर रही हैं, लेकिन अभिनय से उनका नाता टूटा नहीं है। उनका कहना है कि उन्हें मुंबई से अब भी आफर आते हैं और अगर कोई बहुत खास भूमिका मिले तो वह पर्दे पर फिर उतरने को तैयार हैं। पद्मा अपनी डांस एकेडमी के 17 वें वाíषक सांस्कृतिक शो चमकते सितारे 2013 की तैयारियों में मशगूल हैं, जो 22 जून को न्यूजर्सी के एक स्कूल परिसर में आयोजित किया जाएगा। वर्ष 1 91 में 12 वर्ष की उम्र में भोजपुरी फिल्म भैया से रुपहले पर्दे पर पदार्पण करने वाली पद्मा ने बनारस घराने के पण्डित किशन महाराज से कथक की प्रारंभिक तालीम हासिल की और । 2 वर्ष की आयु से स्टेज शो करना शुरू कर दिया था। तभी उन्हें भोजपुरी फिल्मों में काम मिलना शुरू हुआ। उन्होंने कुछ हिन्दी फिल्मों में भी छोटी मोटी भूमिकाएं कीं लेकिन 1971 में जानी मेरा नाम में कैबरे डांसर की भूमिका में उन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। उन्होंने करीब 400 फिल्मों में काम किया, जिनमें बीवी और मकान, संघर्ष, दास्तान, हिन्दुस्तान की कसम, रामपुर का लक्ष्मण और सौदागर प्रमुख हैं। कैबरे डांसर वाली पहचान से पद्मा को 1980 के दशक में आए रामानंद सागर के अत्यंत लोकप्रिय धारावाहिक रामायण के माध्यम से मुक्ति मिली। राजा दशरथ की तीसरी रानी कैकेयी की भूमिका ने पद्मा को अभिनय जगत में एक स्थायी पहचान दी। पद्मा की शादी फिल्म निर्देशक जगदीश सिदाना से हुई थी और वह 1990 के दशक में अमेरिका आ गई। यहां उन्होंने डांस स्कूल खोला।

सोमवार, 17 जून 2013

पिता के दमदार किरदार को मिलती है सराहना

बॉलीवुड के फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में पिता के किरदार को प्रभावशाली ढंग से कम ही पेश किया है, लेकिन जब जब पिता का दमदार किरदार सिल्वर स्क्रीन पर नजर आया है उसे दर्शकों की भरपूर सराहना मिलती है। बॉलीवुड की फिल्मों में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पिता के प्रभावशाली किरदार निभाने में महारत हासिल रखते है। पिता के दमदार भूमिका वाली उनकी फिल्मों में रवि चोपड़ा निर्देशित बागवान खास तौर पर उल्लेखनीय है। इसके अलावा ऐसी भूमिका वाली उनकी फिल्मों में इंद्रजीत, कभी खुशी कभी गम, मोहब्बतें, कभी अलविदा ना कहना, सरकार, एक रिश्ता द बांड ऑफ लव, सरकार, वक्त, सरकार राज, फैमिली, शामिल है। फिल्म इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि वर्ष 1951 में प्रदíशत फिल्म आवारा में पृथ्वीराज कपूर ने पिता का रौेबदार किरदार निभाया था। इस फिल्म में उन्होंने राजकपूर के पिता की भूमिका निभाई थी। पिता पुत्र के आपसी द्वंद को प्रदíशत करती फिल्म आवारा में इन दोनों दिग्गज कलाकारों ने अपने अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। पिता के दमदार किरदार वाली पृथ्वीराज की फिल्मों में मुगल ए आजम भी शामिल है जिसमें उन्होंने ट्रेजेडी दिलीप कुमार के पिता की भूमिका निभाई थी। इसके अलावा वर्ष 1971 में प्रदíशत फिल्म कल आज और कल में उन्होंने एक बार फिर से राजकपूर के पिता की भूमिका निभाई। वर्ष 1982 में प्रदíशत फिल्म शक्ति में दिलीप कुमार ने पिता के किरदार को सशक्त तरीके से रूपहले पर्दे पर पेश किया था। इस फिल्म में उन्होंने अमिताभ बच्चन के पिता की भूमिका निभाई थी जो फर्ज की खातिर अपने पुत्र को गोली मारने से भी नही़ हिचकता। इसी तरह वर्ष 1983 में प्रदíशत फिल्म मासूम में नसीरुद्दीन शाह ने जुगल हंसराज के पिता का भावात्मक किरदार निभाया था। बॉलीवुड के ही मैन कहे जाने वाले धर्मेन्द्र ने कई फिल्मों में पिता की दमदार भूमिका निभाई है। इनमें सन्नी, सल्तनत, अपने, यमला पगला दीवाना शामिल है। इन फिल्मों में वह सन्नी देओल के पिता की भूमिका में नजर आए थे। जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार ने लवस्टोरी में कुमार गौरव के पिता निभाई थी। वहीं सुनील दत्त की पिता के किरदार वाली फिल्मों में रॉकी, क्षत्रीय, दर्द का रिश्ता, मुन्ना भाई एमबीबीएस, शामिल है। मौजूदा दौर में आलोक नाथ पिता के दमदार किरदार को निभाने में अग्रणी रहे हैं। उन्होंने मैने प्यार किया, विवाह, एक विवाह ऐसा भी, कभी खुशी कभी गम, हम आपके हैं कौन, जैसी फिल्मों में पिता का भावपूर्ण किरदार निभाया था। इसके अलावा अशोक कुमार, नजीर हुसैन, ओम प्रकाश, उत्पल दत्त, कादर खान, परेश रावल और अनुपम खेर जैसे कई दिग्गज अभिनेताओं ने भी कई फिल्मों में पिता की भूमिका को रूपहले पर्दे पर जीवंत किया है।

मंगलवार, 11 जून 2013

बनना था पार्श्‍वगायक, बन गए निर्देशक

बालीवुड में अपनी निर्देशित फिल्मों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले राज खोसला फिल्म निर्देशक नहीं, पार्श्‍वगायक  बनने की हसरत रखते थे। 31 मई 1925 को पंजाब के लुधियाना शहर मे जन्में राज खोसला का बचपन से ही रुझान गीत संगीत की ओर था और वह पार्श्‍वगायक  बनना चाहते थे। आकाशवाणी में बतौर उद्घोषक और पार्श्‍वगायक  का काम करने के बाद राज खोसला 19 वर्ष की उम्र में पार्श्‍वगायक  की तमन्ना लिए मुंबई आ गए । मुंबई आने के बाद राज खोसला ने रंजीत स्टूडियो में अपना स्वर परीक्षण कराया और इस कसौटी पर वह खरे भी उतरे, लेकिन रंजीत स्टूडियो के मालिक सरदार चंदू लाल ने उन्हें बतौर पार्श्‍वगायक  अपनी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया। उन दिनों रंजीत स्टूडियो की स्थिति ठीक नहीं थी और सरदार चंदूलाल को नए पार्श्‍वगायक  की अपेक्षा मुकेश पर ज्यादा भरोसा था, अत: उन्होंने अपनी फिल्म में मुकेश को ही पार्श्‍वगायन करने का मौका देना उचित समझा। वर्ष 1954 में प्रदíशत फिल्म मिलाप में राज खोसला ने सर्वप्रथम निर्देशन किया। देवानंद और गीताबाली अभिनीत यह फिल्म सफल रही। वर्ष 1956 में राजखोसला ने गुरुदत्त की सी.आई.डी फिल्म निर्देशित की। जब फिल्म ने बाक्स आफिस पर अपनी सिल्वर जुबली पूरी की तब गुरुदत्त इससे काफी खुश हुए। उन्होंने राज खोसला को एक नई कार भेंट की । वर्ष 1960 में राज खोसला ने निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और बंबई का बाबू का निर्माण किया । फिल्म के जरिए राज खोसला ने अभिनेत्री सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर पेश किया। वर्ष 1964 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म वह कौन थी  प्रदर्शित हुई। फिल्म वह कौन थी के निर्माण के समय मनोज कुमार और अभिनेत्री के रूप में निम्मी का चयन किया गया था, लेकिन राज खोसला ने निम्मी की जगह साधना का चयन किया। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस फिल्म में साधना की रहस्यमयी मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गए। साथ ही फिल्म की सफलता के बाद राज खोसला का निर्णय सही साबित हुआ । वर्ष 1991 में राज खोसला की एक और सुपरहिट फिल्म मेरा गांव मेरा देश प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में विनोद खन्ना खलनायक की भूमिका में थे । फिल्म की कहानी उन दिनों एक अखबार में छपी कहानी पर आधारित थी । वर्ष 1980 में प्रदíशत फिल्म दोस्ताना राज खोसला के सिने करियर की अंतिम सुपरहिट फिल्म थी । फिल्म में अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न ¨सहा और जीनत अमान ने मुख्य भूमिका निभाई थी । अपने दमदार निर्देशन से लगभग चार दशक तक सिने प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन करने वाले महान निर्माता-निर्देशक राज खोसला 09 जून 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गए । राज खोसला निर्देशित अन्य फिल्मों में मैं तुलसी तेरे आंगन की, दो रास्ते, सोलहवां साल, काला पानी, एक मुसाफिर एक हसीना, चिराग, दासी और सन्नी प्रमुख हैं।

अतिक्रमण से कराह रही रजिया सुल्‍तान की कब्र

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण से साभार

गुरुवार, 6 जून 2013

रोशन जिंदगी के स्‍याह हाशिए

रोशन जिंदगी के स्‍याह हाशिए

0Submitted by admin on Thu, 2013-06-06 17:33
डॉ. महेश परिमल, वरिष्ठ पत्रकार
जिन आंखों के भाव पर लाखों कुर्बान हो जाते थे, वे आंखें हमेशा के लिए बंद हो गई। पर उसकी रुह आंख खोलने वाले सवाल पूछ रही है कि क्या सफलता का महत्व इतना अधिक है कि वह न मिले, तो एक खूबसूरत जिंदगी को इस तरह से लटक जाना पड़ता है? जिया खान की मौत को सांसारिक सफलता को सीमा से अधिक महत्व देने के व्यवहार के खिलाफ एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए।
वैसे तो उसके पास क्या नहीं था। उसके पिता लंदन और न्यूयार्क में रियल एस्टेट के कारोबार से जुड़े हैं। मुम्बई के जुहू जैसे पॉश इलाके में खुद का आलीशान फ्लैट था। बॉलीवुड के साथ उनकी मां का करीबी संबंध था, इसलिए उसे फिल्मों के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। केवल 18 वर्ष की उम्र में ही उसे पहली फिल्म मिली। रामगोपाल वर्मा की नि:शब्द, इसके नायक थे अमिताभ बच्चन। हालांकि यह फिल्म नहीं चल पाई, पर उसकी भूमिका को सराहना मिली। दूसरी फिल्म थी सौ करोड़ के बजट वाली आमिर खान की हिट फिल्म गजनी। तीसरी फिल्म थी अक्षय कुमार के साथ हाऊसफुल। बेहद सलोनी, खूबसूरत आंखों के एक झुकाव पर ही लोग जिस पर आफरीन हो जाएं, ऐसी देह केवल सफलता न मिलने से एक झटके में ही लाश बन जाए, उसका क्या कहना?
जिया खान उर्फ नफीसा खान उर्फ बॉलीवुड की लोलिता अब इस दुनिया में नहीं है। अब वह तस्वीरों में ही कैद हो गई है। उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखें, तो स्पष्ट होगा कि मासूम आंखों के आगे लटकती जुल्फ हर किसी को आकर्षित करती है। यह मानना मुश्किल हो जाता है कि इस खूबसूरत बाला ने आखिर क्यों अपने जीवन से नाता तोड़ लिया? वे मासूम आंखें किस तरह से फंदे में झूलकर बाहर आ गई होंगी, कितनी भयानक होंगी वे आंखें? यदि वह इस क्षण की कल्पना ही कर लेती, तो शायद अपने आपको मौत के हवाले करने का विचार ही छोड़ देती। पत्थर की तरह तराशा उसका शिल्प से शरीर किस कदर ऐंठ गया होगा, कितना खतरनाक मंजर रहा होगा? कितनी बार छटपटाई होगी, उसकी देह? इसका उसे जरा सा भी आभास होता, तो शायद वह अपने गले की गांठ छोड़ देती, जिंदगी फिर मुस्कराने लगती। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उसकी आंखें हम सबसे यही पूछ रही होंगी कि क्या वास्तव में सफलता जीवन में इतनी आवश्यक है कि वह न मिले, तो खुद को मौत के हवाले कर देने में संकोच नहीं करना चाहिए। एक खूबसूरत जिंदगी लटक गई, कोई कुछ नहीं कर पाया। जिंदगी जीना क्या इतना कठिन है? आसान तो खैर कुछ भी नहीं होता, पर जिंदगी को मौत के हवाले कर देना इतना सहज है?
बॉलीवुड एक ऐसा दरिया है, जहां लगातार तैरते रहने के लिए हाथ-पांव चलाना अनिवार्य है। अमिताभ बच्चन के साथ पहली फिल्म, दूसरी फिल्म आमिर खान के साथ और तीसरी फिल्म अक्षय कुमार के साथ, इसके बाद भी उसके पास काम की कमी। ऐसे में डिप्रेशन तो होगा ही। यही होता, तो चल भी जाता, उधर प्यार में निराशा मिली, तो उसका दिल बैठ गया। उसके सामने कोई आर्थिक समस्या तो थी नहीं। बस यही दो कारण हो सकते हैं। एक मर्लिन मनरो थी, जिसकी मौत 36 वर्ष की उम्र में हो गई। उसकी मौत का कारण यही बता गया कि एक बार उसने आइने में अपने चेहरे पर झुर्रियां देख ली थी, बस यही से शुरू हो गया उसका डिप्रेशन। मधुबाला के पास क्या नहीं था। शोहरत के अलावा धन भी था। पर मात्र 19 वर्ष की उम्र में वह मौत को प्यारी हो गई। एक तरफ जिया अपनी निष्फलता को पचा नहीं पाई, उधर दिव्या भारती अपनी सफलता नहीं पचा पाई। नफीसा जोसेफ जैसी मॉडल भी 2004 में मात्र 26 वर्ष की उम्र में आत्महत्या कर लेगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। आखिर वह 1997 की मिस इंडिया जो थी। वह भी हम सबसे दूर हो गई। उसकी मौत से सभी हतप्रभ रह गए। इस चकाचौंध भरी दुनिया का सच यही है कि सफलता मिले, तो उसे सहज तरीके से ग्रहण करो। मौत कई प्रकार से आ सकती है, पर हमें सफलता की व्याख्या बहुत बड़ी नहीं आंकनी चाहिए। सफलता को सहज भाव से लेने पर विफलता को भी सहज भाव से लिया जा सकता है। तब विफलता हमें सबक सिखाती है। जिंदगी से नाता तोड़ने के लिए प्रेरित नहीं करती।
जिया की तरह डिप्रेशन में जीने वाली मीना कुमारी ने भी अकाल मौत को गले लगाया। उसे यह अहसास हो गया था कि इस फानी दुनिया में कुछ भी शेष नहीं रहता। सब माया का खेल है। वह अच्छी शायरा थीं, इसलिए उसने अपने गम को शब्द दे दिए। अपनी पीड़ा को उसने कुछ इस तरह से शब्द दिए-
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की किस्मत में इनाम नहीं होता
दिन डूबे हैं या डूबी बरात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता।
मीना कुमारी ने अपने गम को शब्द दिए, जिया नि:शब्द हो गई। वह कुछ कह नहीं पाई। बहुत से गमजदा लोगों का गम बता गई। कामयाबी ही सब कुछ नहीं है, यह बता नहीं पाई। काश कंप्यूटर की तरह जिंदगी में अन डू का कमांड होता, तो एक बार उसका इस्तेमाल कर लेती। पर ऐसा हो नहीं पाया। बहुत से सवालों को छोड़ गई उसकी मासूम आंखें। कौन देगा उन आंखों को जवाब, कोई तो बोलो!