बुधवार, 29 मई 2013

हिन्दी पत्रकारिता दिवस

मनोज कुमार  
 तीस मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाते हैं। ये दिवस बेहद अर्थवान हैं, खासकर पत्रकारिता के लिये। यहां मैं मीडिया शब्द से परहेज करने की कोशिश करूंगा क्योंकि मेरा मानना है कि मीडिया का अर्थ पत्रकारिता से एकदम जुदा है। बहरहाल, हम पत्रकारिता के संदर्भ में बात करेंगे। दादा माखनलाल की विश्व प्रसिद्व रचना है पुष्प की अभिलाषा। इस कविता में उन्होंने फूल की विन्रमता का बखान किया है और इससे जुड़ी बात कलम की मैं कहता हूं। कलम भी आपको विनम्रता सिखाती है। आप देखेंगे कि आमतौर पर कलम नीचे की तरफ होती है अर्थात वह विनम्र है। पत्रकारिता भी विनम्रता सिखाती है और विनम्र पत्रकारिता ही दुनिया बदलने की ताकत रखती है। तलवार नीचे की तरफ होगी तो वह भीरूपन का परिचायक होगी किन्तु कलम ऊपर की तरफ होगी तो उसकी अकड़ दिखेगी। क्या कलम अकड़ दिखा सकती है? नहीं, कभी नहीं। कलम की प्रकृति रचने की है, सिखाने की है और रचियता हमेशा विनम्र होता है। जो लोग आस्तिक नहीं हैं वे भी इस बात को मानेंगे कि ईश्वर, अल्लाह, ईशु, गुरूनानक किसी ने भी, कहीं भी विनयशील व्यवहार के अलावा कोई सीख नहीं दी है। 

जब हम यह मानते हैं कि कलम विन्रम है तो भला हममें विनम्रता क्यों नहीं आना चाहिए। पत्रकारिता का दायित्व समाज के किसी भी दायित्व से बड़ा है। दूसरे दायित्व कम नहीं हो सकते हैं किन्तु उनमें कहीं न कहीं, लाभ की लालसा बनी होती है किन्तु पत्रकारिता में लाभ का कोई लोभ नहीं होता है। पत्रकारिता सहज रूप से एक सुंदर, विचारवान और विकसित समाज की रचना करने की कोशिश है। कुछ लोग इस बात को हजम नहीं कर पाएंगे कि आज जब चौतरफा पत्रकारिता के व्यवसायिक हो जाने की बात चल रही है, कदाचित प्रमाणित भी हो चुकी है तब मेरा यह कहना केवल काल्पनिक बातें हो सकती हैं। मेरा उन सभी लोगों से आग्रह है कि वे इसे दूसरी नजर से देखें। पत्रकारिता तो आज भी नफा-नुकसान से परे है। आप एक पत्रकार हैं तो आप खबर लिखते हैं समाज के लिये किन्तु जिस कागज पर खबर छपती है वह वस्तु है और वस्तु का सौदा होता है। आपकी लिखी खबर शब्द सत्ता है और इसकी कोई कीमत नहीं होती है। पत्रकार का लाभ इतना ही होता है कि उसे जीवनयापन के लिये वेतन के रूप में कुछ हजार रुपये मिल जाते हैं। यदि आप और हम पत्रकार नहीं भी होते तो किसी और व्यवसाय में भी यही करते। संभवतः इसलिये ही हमें श्रमजीवी कहा जाता है क्योंकि श्रम ही हमारे जीवन का आधार है। हम सरस्वती के उपासक हैं और हमारी उपासना का माध्यम हमारी कलम है। इस कलम की विन्रमता देखिये कि यदि इसे आप सीधा कर देते हैं तो यह लिखने का उपक्रम रोक देती है किन्तु जैसे ही यह झुकती है, वह नदी के पानी की तरह बहने लगती है। हमारे विचार और कलम की स्याही एक सुंदर अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं। 

मेरा यह विचार महज एक लेख नहीं है बल्कि एक आग्रह है उस युवा पत्रकार पीढ़ी से जो इस महायज्ञ में शामिल तो हो गये हैं किन्तु उन्हें अपनी ताकत का अहसास नहीं है। वे हर समय भ्रम की स्थिति में रहते हैं। अच्छा लिखना जानते हैं, अच्छा सोचते हैं और अच्छा करने का जज्बा भी उनमें है किन्तु उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि वे फकीरी के पेशे में आये हैं। वे लिखेंगे तो समाज और देश में शुचिता का निर्माण होगा और उनके इस लिखे से अखबार का मालिक कदाचित मालामाल बनेगा। शुचिता और माल के बीच हमारी नयी पीढी को तय करना होगा कि वे आखिर उनका रास्ता क्या हो? वे माल की तरफ भागें या समाज में शुचिता के लिये जो जवाबदारी उनके कंधों पर है, उसे पूरा करें। इस बात को लिखने में मुझे परहेज नहीं है कि हममे से अनेक दिग्गज पत्रकार भावी पीढ़ी में कलम का संस्कार उत्पन्न करने के बजाय कमाने की संस्कृति पैदा कर रहे हैं। भावी पत्रकारों को इस गफलत में नहीं पड़ना चाहिए। हमें महान पत्रकार दादा माखनलाल की पत्रकारिता को, गांधीजी की पत्रकारिता को स्मरण में रखकर कलम के संस्कार को आगे बढ़ाना है। झुकने का अर्थ समझौता नहीं है बल्कि यह विनम्रता है और पत्रकारिता विनम्रता की पहली सीढ़ी है। पत्रकारिता के अवधूतों के प्रसंग में जो बातें लिखी हैं, वह मेरी भावना है और मेरा विश्वास है कि कलम के संस्कार की पत्रकारिता हमेशा अपनी आभा बिखरेते रहेगी।
मनोज कुमार 

1 टिप्पणी:

  1. प्राण चड्ढा29 मई 2013 को 6:41 am बजे

    ये पत्रकारिता का तराजू दौर है, खबर को प्रकाशन के पहले तौला जाता है कि इससे कितना लाभ या हानि होगी फिर उसी लाभ की और पलड़ा झुक जाता है.सम्पादक वो जो लिखे न.. पर मालिक के इशारे पर काम करा सके.हिंदी पत्रकारिता की यही दशा बन गई है.अख़बार रंगीन हो गया है पर उसकी आत्मा मरती जा रही है.

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