सोमवार, 14 मई 2012

निर्ममता से उपजती ममता

डॉ. महेश परिमल
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की निर्ममता लगातार बढ़ती जा रही है। वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद जब से उन्होंने सत्ता की बागडोर संभाली है, तब से एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिससे यह लगता है कि वह स्वयं को काफी असुरक्षित महसूस कर रहीं हैं। दूसरी ओर स्वयं को आम आदमी का प्रतिनिधि बताकर वह केंद्र सरकार के सामने कुछ ऐसे रोड़े अटका रही है, जिसके कारण सरकार को बार-बार परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ममता की पार्टी सरकार को टिकाए रखने में सहयोग कर रही है। इसका बेजा फायदा भी वह समय-समय पर उठा रही हैं। कई बार उन्होंने अपनी जिद से केंद्र सरकार को अपने निर्णय बदलने के लिए विवश होना पड़ा है। यदि इसी तरह उनकी दादागिरी चलती रही, तो संभव है, पहले तो उनकी पार्टी में ही उनका विरोध होना शुरू हो जाए, उसके बाद वह जनता की नजरों से ही गिर जाएगी। संभव है, जनता ही उसे सत्ता समेत उखाड़ फेंके।
हाल ही में केंद्र सरकार ने चार बड़े शहरों में टीवी चैनल के लिए डिजिटल सेटअप बॉक्स अनिवार्य करने की घोषणा की है। इसका विरोध करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि इसकी समय सीमा काफी कम है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने इस मामले में राज्य सरकारों को विश्वास में नहीं लिया है। वैसे तो ममता बनर्जी आम आदमी से उठकर सत्ता तक पहुंची हैं। उन्होंने संघर्ष करके लोगों का दिल जीता है। लोकतंत्र में विचारों एवं आंदोलन की पूरी स्वतंत्रता प्रत्येक नागरिकों को होती है। इसी कारण उन्होंने पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के 33 साल के शासन को उखाड़ फेंका। तृणमूल कांग्रेस की नीतियों के कारण ही उन्हें सत्ता मिली। मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया। सत्ता मिलने के बाद ममता की निर्ममता सामने आने लगी। उनका स्वभाव तानाशाह की तरह होने लगा। एक तो छोटी-छोटी बात पर उन्हें वामपंथी का हाथ दिखाई देता था, तो दूसरी तरफ अपने कार्यकत्र्ताओं पर कोई रोक नहीं लगा पा रही हैं। जिससे कार्यकत्र्ता उद्दंड होने लगे हैं। अभ-अभी उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने का काम किया है। काटरून मामले में उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक को जेल जाना पड़ा। एक वैज्ञानिक ने झोपड़पट्टी के आंदोलन को समर्थन दिया, इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया गया। राज्य के सरकारी पुस्तकालय में सरकार की पसंद के अनुसार ही अखबार आदि बुलाए जाएँ। इन सबसे आघातजनक बात यह है कि उनके साथी और खाद्य विभाग के मंत्री ज्योतिप्रिय मलिक ने एक रैली में यह फतवा जारी किया कि तृणमूल कांग्रेस का कोई भी कार्यकर्ता वामपंथियों से किसी प्रकार का सामाजिक संबंध नहीं रखेगा। इसी से पता चल जाता है कि ममता अपने आपको कितना असुरक्षित समझ रही हैं। ये लोकतंत्र है, इसमें वैचारिक मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं हो सकते। कभी भी किसी भी व्यक्ति के विचारों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। हमारे देश में एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें दो विभिन्न दलों के लोगों मं आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं। आचार्य कृपलानी जीवन भर कांग्रेस के घोर विरोधी रहकर समाजवादी पार्टी का नेतृत्व करते रहे, पर उनकी पत्नी सुचिता कृपलानी कट्टर कांग्रेसी नेता रहीं। लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता एन.सी.चटर्जी हिंदू महासभा के बड़े नेता थे, लेकिन सोमनाथ चटर्जी वामपंथी रहे। प्रजांतत्र में परस्पर दो विरोधी राजनेता मित्र हो सकते हैं। देश में ऐसे भी नेता हैं, जो संसद में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के बाण छोड़ते हैं, तर्क-वितर्क करते हैं, पर थोड़ी देर बाद ही केंटीन में चाय पीते नजर आते हैं। यह लोकतंत्र की आत्मा है। इस समय ममता बनर्जी को अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। संभव है यदि ऐसा ही चलता रहा, तो वह अन्य नेताओं की नजर में उतर जाए। पश्चिम बंगाल की प्रजा को भी उनका असली चेहरा दिखाई दे जाए। बंगाल की संस्कृति गौरवशाली है, इसमें वैचारिक मतभेद की विषबेल न बोई जाए, तो ही बेहतर। ममता को यह याद रखना होगा कि 2004 में इसी प्रजा ने उन्हें लोकसभा की केवल एक ही सीट दी थी। उसके बाद विधानसभा चुनाव में 44 सीटें दीं। जो बंगाल की जनता का मूड समझते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि यह जनता अधिक सहन नहीं कर सकती। वह इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी सहन नहीं कर पाएगी।
ममता का यह निर्मम रूप देखकर उनके विरोधी ही नहीं, पर उनके साथी भी नाराज होने लगे हैं। उनका यह कैसा ‘पोरिबर्तन’ है कि अत्याचार का विरोध करने वाले उन्हें दुश्मन दिखाई देने लगे हैं। विधानसभा के चुनाव में तृणमूल का प्रचार करने वाली प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी काटरून बनाने वाले प्रोफेसर के साथ जो कुछ हुआ, उसे गलत ठहराया है। अब तो उन्हें अपना समर्थन देने वाले कलाकार भी यही कहने लगे हैं कि यही हाल रहा, तो निकट भविष्य में उनके साथ भी ऐसा ही होगा। बलात्कार के एक मामले की जाँच करने वाली पुलिस अफसर दमयंती सेन की बदली का मामला हो या रेलवे के हित में आवश्यक कदम उठाने के लिए रेल किराया बढ़ाने वाले दिनेश त्रिवेदी से पद छीन लेने का मामला हो, हर मामले में उनकी हठधर्मी ही सामने आई है। अपनी छवि बदलने के लिए ममता के पास अभी थोड़ा सा समय है। यदि उनका व्यवहार इसी तरह स्वकेंद्रित रहेगा, तो लोग ममता को तीन दशक जितना समय देंगे ही नहीं, अगले चुनाव में वे अपनी हैसियत बता देंगे। संभव है इसका असर 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में ही दिख जाए।
काटरून के मामले में तो यही कहा जाएगा कि इसके पहले भी देश के बड़े-बड़े नेताओं के खिलाफ काटरून छापे गए हैं, पर किसी के खिलाफ ऐसा व्यवहार किया गया हो, यह सुनने में नहीं आया। प्रोफेसर की धरपकड़ को लेकर मामले ने और भी तूल पकड़ लिया होता, यदि वह केंद्र सरकार के घटक दल की नेता न होती। कई बार वह केवल इसी कारण बच गई हैं। इसके पहले भी तृणमूल कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने गुंडागिरी की, जिसे पुलिस पकड़कर थाने ले गई। किंतु थोड़ी देर बाद ही ममता बनर्जी अपने पूरे अमले के साथ पुलिस स्टेशन आकर उसे छुड़ा ले गई। वे चाहती तो एक फोन पर ही पुलिस उस कार्यकर्ता को छोड़ देती, पर उसे अपने लाव-लश्कर के साथ पुलिस स्टेशन नहीं आना था। केंद्र में कांग्रेस सरकार को समर्थन देने के कारण ममता के खिलाफ अब कोई भी खुलकर नहीं बोल पा रहा है। ममता की निर्ममता का कोई भी मामला हो, कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी उससे बचने की कोशिश करते हैं। अभी उनके साथी भले ही उनके सुर में अपना सुर मिला रहे हों, पर यह सब अधिक समय तक नहीं चल पाएगा। जहाँ अन्याय और अत्याचार है, वहाँ विरोध के स्वर तो मुखर होंगे ही। फिर चाहे वह ममता के खिलाफ हो, या फिर उनके किसी साथी के खिलाफ। अधिक सहन न करने वाले बंगाल की जनता जब चाहेगी अपना गुबार निकाल ही देगी, यह तय है।
    डॉ. महेश परिमल
               

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