शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

एक पत्र सांताक्लॉस के नाम ...

डॉ महेश परिमलसांताक्लॉज केवल उपहार देने वाला एक देवदूत ही नही, बल्कि मासूमों को अपना प्यार लुटाने वाला एक ऐसा शख्स है, जिससे बच्चे कई अपेक्षाएँ पालते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे होते हैं, वे क्या समझें सांताक्लॉज के व्यक्तित्व को. वे तो उसे देवदूत मानते हैं और उनसे अपनी माँगें मनवाते हैं. सांताक्लाँज एक कल्पना है, इसकी जानकारी मासूमों को नहीं है. वे उसे एक सच्चाई मानते हैं. ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं से पीडि़त कोई मासूम सांताक्लॉज से अपने स्वर्गीय माता-पिता को ही माँग ले, तो उसकी माँग भला किस तरह से पूरी हो सकती है. कुछ इसी तरह की माँग एक मासूम ने सांताक्लॉज से की है, प्रस्तुत है उस मासूम का पत्र...
प्यारे सांता,
लोग तुम्हें उपहार बाँटने वाले एक देवदूत के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व के करोड़ों मासूमों को तुम्हारा इंतजार रहता है. कई मासूमों को तो तुम्हारा साल भर इंतजार रहता है. पहले मुझे तुम्हारा इंतजार नहीं रहता था, लेकिन इस बार मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ. मेरी विवशता कुछ दूसरी ही है. पहले मैं खास था, पर अब मैं आम हूँ. पहले मेरे पास सबकुछ था, पर आज मेरे पास मेरी ईमानदारी के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर स्वर्गीय माता-पिता से विरासत में मिली ये ईमानदारी मैं अधिक समय तक सँभालकर नहीं रख पाऊँगा. मेरी ये ईमानदारी अब मेरा साथ नहीं दे रही है. इस ईमानदारी ने मुझे कई रात भूखे सोने के लिए विवश कर दिया है. लगता है बहुत जल्द ही मैं इस ईमानदारी कोअलविदा कह दूँगा.
हर साल इस धरती पर क्रिसमस की रात तुम आते हो. सूनी आँखों में आशाओं के दीप जलाते हो, उदास चेहरे पर मुस्कान खिलाते हो. मासूमों के देवदूत बनकर उनके लिए अपना प्यार लुटाते हो. तुम्हारी झोली में ढेरों उपहार होते हैं, जो उन मासूमों के इंद्रधनुषी सपनों को एक आकार देते हैं. यही कारण है कि हर बच्चा क्रिसमस की रात तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है. इस इंतजार में पूरे साल भर के इंतजार का पल-पल का सफर होता है और विदा लेती बेला में फिर से एक लंबे इंतजार का अहसास होता है. इस अहसास के साथ जीते हुए करोड़ों मासूम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही राह तकते हैं.
आज उन करोड़ों में एक नाम मेरा भी शामिल हो गया है. कल तक नहीं था मुझे तुम्हारा इंतजार. क्योंकि कल तक मेरे लिए तुम एक कोरी कल्पना ही थे. उस समय मेरे पास वह सब कुछ था, जो एक बच्चा चाहता है. माता-पिता ही नहीं, बल्कि बहुत से दोस्त, बहुत सारे खिलौनों का भी संसार था मेरे आसपास. तुम्हें केवल दोस्तों के बीच समय गुजारने और अपनी बुद्धिमानी दिखाने के लिए ही जानबूझकर याद किया जाता था. किंतु आज? आज तुम मेरे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो. क्योंकि अब तुमसे मुझे कई अपेक्षाएँ हैं. मैं जानना चाहता हूँ कि तुम क्या-क्या दे सकते हो. अब मेरे पास केवल अच्छी यादों के सिवाय कुछ नहीं है.
करीब पाँच महीने पहले ही मुम्‍बई में जो धमाका हुआ, उसमें मेरे मॉं की मौत हो गई। उनका कोई दोष नहीं था, वह तो एक आम आदमी की तरह खरीददारी करने गई थी। शायद मौत उनका रास्‍ता देख रही थी। इसके बाद तो लोग मुझ पर दया करने लगे, कोई कुछ दे जाता, कोई कुछ। इस दौरान मेरे पिता ने ही मुझे मॉं बनकर पालते रहे। मुझे समझदार बनाने की कोशिश करते रहे।
मैं समझदार हो भी जाता, यदि वे असमय ही मुझे छोड़ न गए होते। एक दिन रास्‍ते में उन्‍हें एक र्टक ने कुचल दिया। मेरी दुनिया भी उसी ट्रक के नीचे खत्‍म हो गई। आपदाऍं इस तरह से जीवन में आती ही रहती हैं। सच तो यह है कि इन आपदाओं से कई मासूम अपने ऊपर स्नेह की छाँव से वंचित हो जाते हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का भूकंप हो या फिर सुनामी. हर तरह की आपदा मेरे जैसे कई मासूमों को अनाथ कर जाती है. इन आपदाओं ने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया. मैं कहीं का नहीं रहा. पहले माँ मुझे पिता के हवाले कर ईश्वर के पास चली गई. मैं पिता की छाया में ही बढऩे लगा, पर दूसरे हादसे ने मुझसे मेरे पिता को ही छीन लिया, अब मैं क्या करुँ?
आज मैं बेसहारा होकर यहाँ-वहाँ भटक रहा हूँ. कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तो कभी पानी पीकर अपनी भूख मिटाता हूँ. कभी किसी का कोई छोटा-मोटा काम करने से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो खुशी से झूम उठता हूँ. कभी किसी के सामने हाथ फैलाया नहीं, तो इसके लिए हिम्मत भी नहीं कर पाता हूँ. मैं जानता हूँ कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन यही करना होगा. कब तक याद रख पाऊँगा, ईमानदारी का पाठ? पेट की भूख सब भूला देती है. मुझ मासूम को भी एक दिन भिखारी बना ही देगी. लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहता. मैं तो पढऩा चाहता हूँ. खूब आगे बढऩा चाहता हूँ. अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता हूँ. लेकिन कैसे क रूँ? मेरा तो कोई वर्तमान ही नहीं, तो भविष्य क्या होगा? मेरी आँखों में तो अब आँसू भी नहीं, हाँ सूखे आँसुओं के बाद की कोरी जलन है, जो मुझे भीतर तक आहत कर देती है. मैं पल-पल टूट रहा हूँ और ऐसे में क्रिसमस के अवसर पर तुम एक विश्वास बन कर आए हो.
सुना है कि हर साल बड़े-बड़े शहरों में कई लोग सांता क्लास के वेश में मासूमों के बीच आते हैं और अपनी झोली में से अनेक उपहार निकाल कर उन्हें देते हैं. उनके होठों पर मुस्कान खिलाते हैं. अब तो विदेशों में कई ऐसे टे्रनिंग सेंटर भी खुल गए हैं, जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति सांता क्लॉस बनने की ट्रेनिंग लेते हैं, ताकि 24 दिसम्बर की रात वे प्यारे बच्चों के साथ एक यादगार क्षण बिता सकें. मुझे भी उस 24 दिसम्बर की रात का इंतजार है.
सुना है, तुम बच्चों को कई तरह के उपहार बाँटते हो, पर मुझे उपहार नहीं, खुशियाँ चाहिए. मुस्कान चाहिए. मेरे लिए उपहार मत लाना सांता क्लॉस, वह तो मुझे बहुत मिल जाएँगे. मुझे तो चाहिए मेरे माता-पिता, मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा परिवार. मुझे तो यहीं मिल जाएगी खुशियाँ. इन खुशियों मेें डूबकर ही मैं अपने उन सभी साथियों को याद कर लूँगा, जिनके दामन में खुशियाँ है ही नहीं. तुम्हें आना ही होगा सांता क्लॉस, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. अपनी झोली से मेरी झोली में थोड़ी सी खुशियाँ डालने तुम आओगे ना सांताक्लॉस?
तुम्हारे इंतजार में....
एक मासूम
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

नैतिक मूल्यों के साथ-साथ बदलते पैमाने


  डॉ. महेश परिमल
फिल्मी दुनिया में आने के बाद भी धर्मेद्र ने काफी संघर्ष किया। पहली फिल्म करने के बाद उन्हें मात्र 51 रुपए मिले। धीरे-धीरे हालात बदले। सितारा बनते ही उन्होंने जुहू में एक बंगला लिया और पूछे जाने पर कि कितना बड़ा बंगला है, उन्होंने कहा यही कोई चालीस-पचास मंजियां (खटियाएं) आ जाएंगी। ये था उनका ठेठ गँवईपन, जिसमें पंजाब की माटी का सौंधापन कूट-कूटकर भरा है।  जीवन में इंसान अपने तरीके से मापदंड तय करता है। कई चीजें कुछ लोगों के लिए बड़ी सहज होती हैं। इसे वे उसी सहजता से बोल भी जाते हैं। हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि हम उसे पेचीदा बना देते हैं। उसे गुिफत करते रहते हैं। सहज और सरल को यथावत् रखा जाए, तो कई पेचीदे सवाल भी आसानी से सुलझ सकते हैं। अाी कुछ दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ जाना हुआ। रास्ते में एक ग्रामीण से पूछा कि यहाँ से उदयपुर कितने किलोमीटर है। ग्रामीण ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया- बस वाला 30 रुपए लेता है। एकदम आसान जवाब। उसने दूरी को न तो कोस से नापा, न ही किलोमीटर से। उसके पास न तो फर्लाग का पैमाना था, न ही गज का। ग्रामीण ने जो बताया, वह दोनों को समझ में आने वाला था। अब यह बात अलग है कि आप अपडेट नहीं हैं। यदि आप अपडेट हैं, तो आपको आसानी से पता चल जाना चाहिए कि बस वाले 30 रुपए में कितने किलोमीटर ले जाते हैं।  दूरी को रुपए से नापने का यह तरीका अपने आप में अनोखा है।
जिस तरह से प्यार को सीमाओं से नहीं बाँधा जाता, ठीक उसी तरह जब कोई कहे कि मैं उसे उतना ही प्यार करता हूँ, जितना हनुमान जी श्री राम से करते थे। यहाँ आकर सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। इससे अधिक तो कोई किसी से प्यार कर ही नहीं सकता। हमारी आदत है कि हम इस प्यार को पेचीदगियों के साथ समझना शुरू कर देते हैं। सागर की अनंत गहराई, जमीं से सितारों की दूरी, जीवन की अंतिम साँसों तक आदि। ये सब सीमाएँ हैं। जीवन बहुत ही सरल और सहज है। इतना अधिक की उसे नापने के लिए हमारे पास कोई पैमाना नहीं है। भोथरे हो गए हैं हमारे पैमाने। हम केवल प्यार ही नहीं, बल्कि संवेदनाएँ और अनुभवों को भी मापने लगे हैं। एक कोशिश केवल एक कोशिश इंसानियत को मापने के लिए करो, तो समझ में आ जाएगा कि इसे मापने के लिए हमारा हर पैमाना काफी छोटा साबित होगा।
  डॉ. महेश परिमल