बुधवार, 4 मई 2011

अहिंसक हिंसा


श्रीभगवान सिंह
कुछ समय पहले विलासपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा जनकवि
नागार्जुन पर आयोजित संगोष्ठी में युवा कवि अरुण शीतांश के इस वाक्य
ने मेरा ध्यान खींचा- ‘हिंसा सिर्फ वही नहीं है जो पुलिस या नक्सलियों द्वारा हो
रही कार्रवाइयों में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रही है, बल्कि वह भी है जो मॉल
के रूप में छोटे-छोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी का अंत कर रही है।’ शीतांश
की बात ने इस न दिखाई पड़ने वाली हिंसा के विविध रूपों को सामने खड़ा
कर दिया। विकास के नाम पर बन रहे विशालकाय कल-कारखाने, नए
औद्योगिक प्रतिष्ठान, भीमकाय बांध, चौड़ी सड़कें आदि से कितने किसान खेती
से बेदखल हो रहे हैं, कितने लोग पुश्तैनी आवास से विस्थापित हो रहे हैं,
कितनी वन-संपदा नष्ट हो रही है, कितनी नदियों का संहार हो रहा है,
अनुत्पादक कार्यों पर कितना पानी खर्च हो रहा है, लेकिन यह सब हिंसा के
पारंपरिक अर्थ में हिंसा नहीं समझा जाता। जबकि सच्चाई है कि यह एक ऐसी हिंसा है
जो अहिंसक ढंग से बहुत सारी अनमोल कुदरती नियामतों का संहार कर रही है।
सच कहें तो आए दिन आराम, सुविधा, प्रगति आदि के लिए आविष्कृत होने
वाले उत्पादों से हम जीवन के सुकून से महरूम होते जा रहे हैं। ट्रेन में यात्रा करते
समय जब हम गहरी नींद में होते हैं, तब अचानक किसी का मोबाइल और खुद
मोबाइलधारक चीखने लगता है। तब आराम से यात्रा करने के मकसद से कराया
गया आरक्षण बेमतलब हो जाता है। लेकिन इसे हम हिंसा नहीं, प्रगति की र
कहते हैं, जबकि किसी की नींद में खलल डालना भी एक तरह की हिंसा है।
तेज र
वाहनों की तादाद इस कदर बढ़ती जा रही है कि सड़क पर पैदल चलते वक्त हमें
हमेशा भ्रम, आतंक से वैसे ही सहमे, दुबके चलना पड़ता है जैसे बिल्ली के भय
से चूहों को। यही नहीं, जब सड़क को पार करना पड़ता है तब दोनों तरफ से
वाहनों की लगातार दौड़ से हमें कितनी-कितनी देर तक इंतजार करना पड़ता है।
लेकिन किसी वाहन चालक को पैदल चलने वाले का तनिक ख्याल नहीं रहता कि
इसे भी सड़क पार कर लेने दें, क्योंकि इसका भी समय कीमती है। वाहन चालक
सिर्फ अपने समय को कीमती और काम को जरूरी समझते हुए पैदल पथिक के
समय का जो नुकसान करते हैं, वह हिंसा नहीं तो क्या है? कई बार तो वे पैदल
पथिक को कुचलते हुए निकल जाते हैं, जिसे हिंसा नहीं दुर्घटना कहते हैं।
जब मैं दोपहर का भोजन करने बैठता हूं तो कमरे से लगी बालकनी की रेलिंग पर
ढेर सारे बंदर-बंदरियां और उनके बच्चे आ बैठते हैं और मुझे खाते हुए टुकुर-टुकुर
देखने लगते हैं। कभी एकाध रोटी या थोड़ा भात या कोई फल हम उन्हें दे देते हैं जो
ऊंट के मुंह में जीरा जैसा होता है। कभी-कभार यह खबर पढ़ने-सुनने को मिलती है
कि अमुक गांव में तेंदुए या बाघ को देखा गया। कुछ माह पूर्व ही पश्चिम बंगाल के
जलपाईगुड़ी में ट्रेन की चपेट में एक नहीं, सात हाथियों की एक साथ बलि चढ़ गई।
विविध विहग हमारे दृष्टिपथ से ओझल होते जा रहे हैं। यह सब देखते-सुनते सोचता
रह जाता हूं कि इन प्राणियों को ऐसी दयनीय स्थिति में लाने के जिम्मेवार हम नहीं तो
कौन हैं? विकास और शहरीकरण के जोशीले अभियान में हम बागान, वन आदि को
काट-काट कर इन पशु-पक्षियों को आवासविहीन और इनके खाद्य-पदार्थ से वंचित
किए जा रहे हैं। पुराने ढंग के बने मकानों में गौरेया जैसे पक्षी अपने लिए भी आवास
बना लेते थे, लेकिन नए ढंग की बन रही इमारतों और
रही। क्या यह बंदूक, बारूद से होने वाली हिंसा से कम विनाशकारी, अनिष्टकारी है?
हम मुग्ध हो रहे हैं बहुमंजिली इमारतों के फैलते जंगलों, धरती के नीचे दौड़ती ट्रेनों,
हाइवे-एक्सप्रेस वे पर दौड़ती गाड़ियों, नए-नए रेलवे-ट्रैकों और उन पर दौड़ती सुपरफास्ट
रेलगाड़ियों को देख कर। लेकिन यह सब हो रहा है किसकी कीमत पर? सृष्टि के
आदिकाल से जो पहाड़ अब तक सुरक्षित थे, उन्हें ही तोड़-तोड़ कर ये सारी उपलब्धियां
हासिल की जा रही हैं। स्थिरता, दृढ़ता के प्रतीक रहे इन पर्वतों की विकास सुविधा की वेदी
पर बलि चढ़ रही है। विभिन्न मशीनों की दखलंदाजी बैल, घोड़े जैसे मवेशियों की नस्ल को
समाप्ति की ओर धकेलती जा रही है। यह क्या किसी हिंसा से कमतर है?
ऐसे विकासोन्मुख कृत्यों को देखते हुए महसूस होता है कि सृष्टि को खतरा
अब आणविक अस्त्रों से अधिक विकास, सुविधा,
बनने वाली सामग्रियों से है। अगर मॉल से लेकर बांध, फैक्ट्रियां, चौड़ी सड़कें,
बहुमंजिली इमारतें, रात में भी बिजली का दुरुपयोग कर खेलों का मजा लेने आदि
का यह अविराम सिलसिला चलता रहा तो सारे आणविक हथियार धरे के धरे रह
जाएंगे और दुनिया इस अहिंसक-हिंसा की बदौलत उजड़िस्तान में तब्दील हो
जाएगी। बगैर तीसरा विश्वयुद्ध हुए ही दुनिया वीरान हो जाएगी। यह अहिंसक
हिंसा प्रौद्योगिकी-सभ्यता का वरदान है या अभिशाप, विचारणीय है!

श्रीभगवान सिंह
μतारμतार से चलने वाले तरह-तरह के दुपहिए, तिपहिए, चौपहिए, छह-पहिएलैटों में इसकी गुंजाइश नहींतेज रफतार के नाम पर नित नई